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ऑनलाइन एजुकेशन

केवल प्रतिनिधित्व उद्देश्य के लिए छवि

अखिल विकल्प

2020 के मार्च महीने से कोविड की पहली और दूसरी लहर और उसके चलते लॉकडाउन/कोरोना कर्फ्यू के कारण देश के तमाम स्कूल/कॉलेज बंद हैं। बीच में कुछ समय के लिए कुछ स्कूल/कॉलेज भले ही खोले गये हों, परन्तु उसके बावजूद संक्रमण के खतरे के कारण अधिकांश समय वे बंद ही रहे। सामान्यतः इस कदम को सही भी माना जा रहा है कि कोरोना के खतरे, खासतौर पर दूसरी लहर के बाद, के चलते उन्हें बंद ही रहना चाहिए। फिर तीसरी लहर की भी सम्भावना जताई जा रही है, जिसके शिकार बच्चे हो सकते हैं। 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए अभी वैक्सीन भी उपलब्ध नहीं है।

अब जब स्कूल/कॉलेज बंद हैं तो स्वाभाविक रूप से पढ़ाई-लिखाई ठप्प ही पड़ी हुई है। ऐसे में शिक्षा के लिए एक ही विकल्प है और वो है ऑनलाइन एजेकेशन। ऑनलाइन कक्षाएं अर्थात इण्टरनेट के माध्यम से कम्प्यूटर, लैपटॉप या समार्टफोन के माध्यम से कक्षाएं लगातार आयोजित की जा रही हैं। जो भी हो, जैसी भी हो पर ऑनलाइन एजुकेशन या ऑनलाइन शिक्षा आज के समय की एक सच्चाई बन चुकी है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है।

इस पृष्ठभूमि में ऑनलाइन कक्षाओं पर सवाल उठाने का कोई औचित्य नहीं बनता है। वैसे भी प्राद्यौगिकी के विकास के साथ नये-नये तरीके सामने आते हैं, उन्हें एकतरफा तरीके से खारिज तो नहीं किया जा सकता! परन्तु समस्या यह है कि तमाम दूसरी बातों की तरह ही ऑनलाइन एजुकेशन की बात भी पृष्ठभूमि और संदर्भों से काट कर अलग-थलग तरीके से प्रस्तुत की जा रही है। एक अजीब से कल्पनालोक में पंहुच कर, इसका महिमामण्डन (glamourisation) किया जा रहा है।

ऑनलाइन एजुकेशन के बारे में एक सार्थक चर्चा के लिए हम अपनी बात-चीत को चार भागों में बांट कर करेंगे। सर्वप्रथम यह कि ऑनलाइन एजुकेशन हमारे देश में कितनी व्यवहारिक है, द्वितीय ऑनलाइन एजुकेशन और ऑनलाइन क्लासेस में क्या फर्क है, और इस तरह वास्तव में शिक्षा की समूची अवधारणा क्या है और उसमें ऑनलाइन एजुकेशन तथा ऑनलाइन क्लासेस कहां फिट बैठते हैं, तीसरे यदि समूची शिक्षा के स्थान पर केवल कक्षाओं की ही बात करें तो भी ऑनलाइन क्लासेस कितनी सार्थक हैं और चौथा सरकार का ऑनलाइन शिक्षा पर इतना अधिक ज़ोर क्यों है?

1- ऑनलाइन शिक्षा कितनी व्यवहारिक?

ऑनलाइन शिक्षा के बाकी पहलुओं को फिलहाल नज़रअंदाज़ भी कर दें तो भी यह सवाल तो रहेगा ही कि अगर इसे लागू करना है तो यह लागू किया कैसे जायेगा? इस संदर्भ में तीन सवाल बेहद मायने रखते हैं। पहला आधारभूत ढ़ांचा अर्थात् स्मार्टफोन/लैपटॉप/टैबलेट की उपलब्धता तथा इण्टरनेट कनेक्टिविटी, डाटा पैक आदि; दूसरा डिजिटल लिटरेसी तथा तीसरा हमारे समाज का ढ़ांचा।

ज़ाहिर सी बात है कि बिना स्मार्टफोन इत्यादि के तो ऑनलाइन शिक्षा हो ही नहीं सकती। परन्तु यह भी सच है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा एक ढ़ंग का स्मार्टफोन नहीं खरीद सकता। देश में पहले से ही शिक्षा का स्तर काफी नीचे है। बड़ी संख्या में गरीब बच्चों के लिए दोपहर का भोजन ही उनके स्कूल जाने की एक वजह है। राशन और मिड-डे-मील के अभाव में भूख से दम तोड़ती 11 वर्षीय आदिवासी बच्ची संतोषी इसका एक सीधा उदाहरण है। उच्च शिक्षा में नामांकन दर और भी कम है। ऐसे में एक छात्र/छात्रा से यह उम्मीद करना कि वह अच्छे तथा ढंग का स्मार्टफोन ले पायेगा तथा प्रतिदिन के डाटा खर्च उठा पायेगा, यह बिल्कुल बेमानी है। सामान्यतः एक मोबाइल कम्पनी एक दिन में 1 से 1.5 जी0बी0 डाटा का पैक देते हैं। हालांकि कुछ पोर्टलों पर ऑडियो कक्षाएं होती हैं जो एक घंटे में 50 एम0बी0 डाटा ही खर्च करती हैं और प्रायः छात्र-छात्राओं को डाटा की समस्या नहीं होती है। परन्तु यदि वीडियो कक्षाओं की बात करें तो प्रायः एक घंटे की कक्षा में ही 350 से 450 एम0बी0 डाटा खर्च हो जाता है। ऐसे में इस पैक से 2-2.5 घंटे की ही कक्षा सम्भव है। जबकि सामान्यतः एक हाईस्कूल/इण्टर के विद्यार्थी के 4 से 6 घंटे तो विद्यालय में ही चले जाते हैं; फिर कोचिंग इत्यादि मिला लें तो 7 से 9 घंटे की पढ़ाई करनी पड़ती है। ऐसे में ऐसे में वर्तमान डाटा पैक से कम से कम 3 गुना अधिक डाटा वाले पैक की आवश्यकता पड़ेगी। स्वाभाविक तौर पर उसका खर्च भी अधिक ही होगा। इण्टरनेट कनेक्टिविटी (Internet Connectivity) के बिना भी कोई क्लास सम्भव नहीं है। कई स्थानों पर खासतौर पर गांवों में यह एक बड़ी समस्या है।

ऐसे में जब तक सरकार अनिवार्य तौर पर हर छात्र-छात्रा को स्मार्टफोन तथा मुफ्त डाटा उपलब्ध नहीं कराती और इण्टरनेट कनेक्टिविटी को सुनिश्चित नहीं कराती, तब तक आॅनलाइन एजुकेशन समाज के वंचित और हाशिए के तबकों को शिक्षा से और अधिक दूर कर देगी। ऐसे में यह समाज में एक नई तरह की असमानता पैदा कर रही है, जिसे अब सामान्यतः डिजिटल डिवाइड (Digital Divide) जाता है। यह दुखद है कि इस तरह की असमानता के प्रति सरकार बेहद अगम्भीर है। और जो गरीब और वंचित छात्र/छात्रा आज भी बड़ी मुश्किल से अपनी शिक्षा का खर्च उठा पाते हैं, उन्हें ऑनलाइन शिक्षा का पाठ पढ़ा कर एक प्रकार से उनका मज़ाक उड़ा रही है।

ऑनलाइन शिक्षा के संदर्भ में दूसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता यह है कि छात्र/छात्रा को इण्टरनेट सम्बन्धी कुछ न्यूनतम जानकारी हो और वे सहजता के साथ (User Friendly) तरीके से स्मार्टफोन चला सकें। एक गलत समझ के चलते हमारे समाज में अमूमन लोग फेसबुक, व्हाट्सएप, यू-ट्यूब चलाने को ही इण्टरनेट की शिक्षा मान लेते हैं। परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। स्मार्टफोन रखने वाले अधिकांश विद्यार्थी तो दूर शिक्षक तक न तो अपने फोन के अधिकतर फीचर्स जानते हैं और न ही इण्टरनेट की दुनिया की बुनियादी जानकारी। अभी भी यदि किसी विद्यार्थी को कोई नया App Install करना हो तो उसे दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। यहां तक कि इण्टरनेट चलाते समय अपने मोबाइल को हैक (Hack) होने से अथवा अपनी निजी जानकारियां लीक होने के खतरे से कैसे बचते हैं, ऐसी बुनियादी जानकारियां तक उन्हें नहीं हैं। यहां तक कि फेसबुक और व्हाट्सएप चलाते समय मैसेज/वीडियो फॉरवर्ड सम्बन्धी न्यूनतम कानूनों तक की जानकारी नहीं है।

हालांकि यह एक बिल्कुल अलग विषय है, इस पर हम अधिक चर्चा नहीं करेंगे। परन्तु मोटे तौर पर यह समझना आवश्यक है जिन विद्यार्थियों/शिक्षकों को नियमित तौर पर ऑनलाइन शिक्षा लेनी/देनी है, उनको कम से कम इण्टरनेट सम्बन्धी बुनियादी जानकारियां तो होनी ही चाहिए। और यह एक जटिल कार्य है। जहां शिक्षा का स्तर, विशेषकर कि उसकी गुणवत्ता पर इतना कम ध्यान दिया जाता हो कि न्यूनतम विज्ञान/गणित/भाषा/ सामाजिक विज्ञान तक विद्यार्थियों को न आता हो, वहां उन्हें कम्प्यूटर साक्षरता से लैस करना अथवा Digital Literate बनाना एक बेहद दूर की कौड़ी है। इस दिशा में शोध के स्तर पर भी भारी कमी है। चाहिए तो यह कि नये Applications (App) छात्र-छात्राओं की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक स्थिति को देखते हुए सरकारी स्तर पर शोध कार्य करा के बनाये जायें परन्तु यह कार्य भी ज्यादातर निजी स्तर पर मोबाइल कम्पनियों द्वारा ही किया जा रहा है, जिन्हें केवल अपनी बिक्री अथवा मुनाफे से ही मतलब होता है। Digital Literacy का यह अभाव Digital Divide को और चौड़ा कर देता है।

ऑनलाइन शिक्षा की व्यवहारिकता के संदर्भ में तीसरी बड़ी समस्या सामाजिक ढ़ांचे की है। प्रायः अभिभावकों के लिए यह समझाना कठिन है कि ऑनलाइन कक्षाएं क्या हैं और उसके लिए घर में विद्यार्थियों को उचित माहौल दिलाना और भी कठिन है। उदाहरण के लिए एक लड़की अगर स्कूल/कॉलेज गई है, तब तो वहां यह मुमकिन है कि वह पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित कर ले। पर अगर वह घर पर है, कान में इयरफोन लगाकर क्लास अडेण्ट कर रही है, तो क्या घरवाले ठीक-ठीक समझ पायेंगे कि वह क्लास कर रही है और उसे डिस्टर्ब न किया जाये। बहुत सम्भव है कि जब वह क्लास कर रही हो तब ही घर में उसके पिता उसे चाय बनाने को, एक गिलास पानी पिलाने को कह दें, या उसकी मां कह दे कि सुनते-सुनते सब्जी ही काट दो और अगर वो मना करे कि वह क्लास में है तो शायद उसे डांट भी दें। हमारे समाज में लड़कियों को फोन, विशेषकर स्मार्टफोन देने को लेकर वैसे ही अभिभावकों में हिचक रहती है कि उनकी बेटी ’बिगड़ जायेगी’, पंचायतों द्वारा लड़कियों को फोन न देने के फैसले तक हुए हैं, और हद तो यहां तक है कि 10 जून 2021 को अपने एक बयान में उत्तर प्रदेश की महिला आयोग की सदस्य मीना कुमारी तक ने लड़कियों को मोबाइल फोन न देने की बात की है। क्या उस समाज में, घर के भीतर एक स्मार्टफोन द्वारा एक लड़की स्वस्थ माहौल में पढ़ पायेगी?

इसी तरह क्या एक छात्र और खासकर छात्रा अपने माता-पिता या बड़ों की उपस्थिति में सहज ढ़ंग से हर प्रकार के सवाल पूछ पायेंगे? कई बार ऐसा होता है कि ट्यूशन पढ़ाने वाला व्यक्ति तक माता-पिता की उपस्थिति में छात्र/छात्रा के साथ सहज होकर पढ़ा नहीं पाता और न ही छात्र/छात्रा सहज होकर कुछ पूछ पाते हैं। इसी तरह गांव में और शहर में भी जहां गरीब दलित/अल्पसंख्यक बस्तियां हैं, जहां घर छोटे-छोटे हैं, शिक्षा के प्रति समझदारी का भी अभाव है, जहां लाइट/पानी की भी दिक्कत है, वहां क्या ऑनलाइन कक्षा करना उतना सहज है? उदाहरण के लिए शहर के एक घनी आबादी वाले मोहल्ले, में बिजली न आने पर, एक चबूतरे पर कोई लड़का बैठा स्मार्टफोन पर क्लास कर रहा हो और तभी मोहल्ले का कोई बुजुर्ग आकर पूछे कि बेटा यहां बैठे क्या कर रहे हो? तो क्या वह विद्यार्थी उस बुजुर्ग को समझा पायेगा कि वो ’ऑनलाइन क्लास’ कर रहा है?

ये वह समस्याएं हैं जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। आधारभूत ढ़ांचा सुनिश्चित करना चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हर विद्यार्थी के पास स्मार्टफोन/टैबलेट, नेटवर्क, मुफ्त डाटा उपलब्ध हो; Digital Literacy का प्रचार-प्रसार ढंग से किया जाना चाहिए, खासतौर पर टीचरों का प्रशिक्षण आवश्यक है; साथ ही साथ ऑनलाइन एजुकेशन के प्रति जागरूकता भी ज़रूरी है जिससे अभिभावक इसे ठीक ढ़ंग से समझ सके और घर में इसके लिए एक बेहतर माहौल उपलब्ध करा सकें जिसमें निजता (Privacy) भी शामिल है; हाशिए के तबके तथा वंचित तबकों के लिए विशेष प्रयास करने ज़रूरी हैं।

हालांकि यह भी समझना आवश्यक कि जब भी कोई नई तकनीक आती है तो ऐसी समस्याओं का सामने आना स्वाभाविक है पर केवल इसी कारण से कोई नई तकनीक अथवा इसी के तर्ज पर ऑनलाइन एजुकेशन को खारिज नहीं कर सकता, और न ही ऐसा कहने का कोई आशय है। मुख्य बात है नये तरीकों के साथ आ रही नई दिक्कतों के प्रति सरकार की अनदेखी, एक नई किस्म की असमानता, डिजिटल डिवाइड, जो समाज में भयानक रूप ले सकती है, उसके प्रति उदासीनता। यहां तक कि शिक्षकों, छात्र-छात्राओं, छात्र संगठन, शिक्षक संगठनों, बुद्धिजीवियों के साथ बैठ कर इस पर एक संतुलित और व्यवस्थित चर्चा तक न करना, यही दर्शाता है कि इस नये तरीकों, नई समस्याओं के प्रति सरकार कितनी उदासीन है!!

2- एजुकेशन (शिक्षा) और क्लासेस (कक्षा) में फर्क

एजुकेशन अर्थात् शिक्षा ऑनलाइन हो या ऑफलाइन हो, इस बात से भी पहले जो बात आती है, वह यह है कि वास्तव में शिक्षा क्या है? शिक्षण संस्थानों का काम क्या है? हमको समझना होगा कि एजुकेशन अर्थात् शिक्षा का अर्थ केवल क्लासेस अर्थात् कक्षाएं ही नहीं है। शिक्षा का अर्थ होता है, ’सिखाना’। पढ़ना-लिखना सिखाना, कौशल (Skill) सिखाना, तर्क-वितर्क करना सिखाना, समाज में जिम्मेदारी के साथ रहना सिखाना, अपने-अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में सिखाना, न्याय के लिए और अन्याय के खिलाफ संघर्ष करना सिखाना, साथ मिल-जुलकर रहना, साझी बहुलतावादी संस्कृति के बारे में सिखाना, अनुशासन में रहना, स्वास्थ्य और स्वच्छता के बारे में सिखाना, रचनात्मकता का विकास करना आदि सब शिक्षा के अलग-अलग हिस्से हैं।।

अब यह सब सिखाने के लिए एक समग्र सोच की ज़रूरत है। कक्षा में अध्यापक के पढ़ाने के अलावा, एक छात्र-छात्रा पाठ्य-पुस्तकें पढ़ता है, नोट्स बनाता है, लाईब्रेरी में अन्य किताबें पढ़ता है, विज्ञान के विषयों में प्रयोगशाला में जाता है, शैक्षणिक टूर (Educational Tours) होते हैं, खेल-कूद, पी0टी0 आदि के माध्यम से शरीर को स्वस्थ रखना, खेल भावना, टीक वर्क, स्वस्थ मनोरंजन करना सीखते हैं, अन्य गतिविधियों (Co-Curricular Activities) जैसे वाद-विवाद, क्विज़, नाटक, गायन, भाषण, निबन्ध लेखन, चित्र बनाने आदि की प्रतियोगिताओं द्वारा अपने भीतर छिपी प्रतिभाओं तथा रचनात्मकता का विकास करते हैं।

कई गतिविधियों या कार्यों द्वारा छात्र-छात्राओं में नेतृत्व की क्षमता और राजनैतिक चेतना का भी विकास किया जाता है। मसलन क्लास में मॉनिटर या कुछ कॉन्वेण्ट स्कूलों में हेड-बॉय/ हेड-गर्ल नियुक्त किये जाते हैं, जिनसे उन छात्र-छात्राओं की नेतृत्व क्षमता का सकारात्मक दिशा में विकास हो सके। स्कूल/कॉलेज में कई कार्यक्रम होते हैं, उनमें छात्र-छात्रा अध्यापकों की निगरानी में आयोजन का कार्य सम्भालते हैं, जिनसे उनके भीतर बेहतर ढ़ंग से नेतृत्व क्षमता विकसित हो सके। एन0एस0एस0/एन0सी0सी0 के द्वारा भी छात्र-छात्राओं के बीच नेतृत्व क्षमता, सामाजिक जागरूकता, सेवा भाव आदि का विकास करने का प्रयास किया जाता है। विश्वविद्यालय/ महाविद्यालयों में तो छात्रसंघ के चुनाव भी होते हैं। यदि एक छात्र-छात्रा कुछ प्रत्याशियों के बीच अपनी सही प्रतिनिधि नहीं चुन सकता तो उससे क्या उम्मीद की जाये कि वह भविष्य में सही/गलत के बारे में ठीक निर्णय ले पायेगा। इसके अतिरिक्त कुछ नये प्रयास भी किये जा रहे हैं जैसे किशोरियों की विशेष समस्याओं के लिए मीना मंच का गठन आदि इसके हिस्से हैं।

इस प्रकार शिक्षा किसी को एक बेहतर इंसान तथा जागरूक नागरिक बनाने का औजार है। दुर्भाग्यवश शिक्षा के बारे में हमारी सोच बहुत संकुचित है। ’पढ़-लिख कर फावड़ा ही चलाना है/रिक्शा ही चलाना है तो पढ़ने की क्या ज़रूरत है?’ जैसे वाक्य सुनने को मिल जाते हैं। लड़कियों के लिए तो प्रायः यह सुनने को मिलता है कि ’पढ़-लिख कर चूल्हा-चौका ही तो करेंगी तो पढ़ने की क्या ज़रूरत है?’ इससे लगता है कि जिन्हें फावड़ा चलाना है, चूल्हा-चौका करना है, उन्हें पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है।

शिक्षा के बारे में ये बात तात्कालिक रूप से प्रायः कई बार सही भी लगती हैं। शिक्षा के लगातार मंहगे होने से और सरकार के शिक्षा पर खर्च कम होने से इस सोच को और बल मिलता है। इस पर हम आगे चर्चा करेंगे। परन्तु ऐसी सोच शिक्षा की उस व्यापक समझ को नकार देती है, जहां शिक्षा राष्ट्र-निर्माण का हिस्सा है और उसके दूरगामी असर एक नये और बेहतर समाज के निर्माण के रूप में सामने आते हैं। इसीलिए संविधान न केवल मुफ्त शिक्षा की बल्कि अनिवार्य शिक्षा की भी बात करता है। शिक्षा अपनी इस भूमिका को तभी पूरा कर सकती है जब शिक्षा की अवधारणा को समग्रता में समझा जाये।

उदाहरण के लिए मिड-डे-मील को ही ले लें तो बेशक यह अपने आप में कोई पढ़ाई नहीं है। सीधे-सादे तौर पर देखें तो यहां तो बच्चे सिर्फ खाना खाते हैं। पर अगर जिस सामाजिक परिवेश में यह हो रहा है, उस पर ध्यान दें तो हमारे इस सामाजिक परिवेश में आज भी कई घरों में जाति-धर्म के नाम पर खान-पान में छुआछूत व्याप्त है। कई घरों में दलितों-अल्पसंख्यकों के लिए अलग बर्तन होते हैं। तमाम घरों में घर के सारे पुरूष/लड़के जब खा लेते हैं, उसके बाद ही महिलाएं/लड़कियां खाती हैं। यदि पुरूष ने अधिक भूख होने पर ज्यादा खाया या सब्जी/दाल आदि में कोई चीज़ ज़्यादा खाई तो महिलाओं/लड़कियों को कम खाना पड़ता है। ऐसे समाज में तो मिड-डे-मील में यदि सभी जाति-धर्म के लड़के-लड़कियां एक साथ बैठ कर, एक जैसी थाली में, एक जैसी ड्रेस पहन कर, एक ही जगह पके हुए खाने को खाते हैं तो यह कोई छोटी-मोटी शिक्षा नहीं है। वो बच्चे समाज में रहने के तौर-तरीके सीख रहे हैं। वही बच्चे कल बड़े होंगे तो उनके घर में दलितों/अल्पसंख्यकों के लिए अलग बर्तन नहीं होंगे। वे कम से कम खाने के मामले में महिला-पुरूष में फर्क नहीं करेंगे। महात्मा फुले से लेकर महात्मा गांधी और डॉ0 अम्बेडकर तक सबने विशेषकर खान-पान में छुआछूत को एक भयंकर रोग माना है। कई सामाजिक आन्दोलनों ने सहभोज आयोजित कराये हैं। ऐसे में यदि बचपन से ही मिड-डे-मील के रूप में साथ खाने की एक सोच दिमाग में बैठ जाये तो सामज का नक्शा ही बदल सकता है।

इसलिए जब सवाल यह आता है कि ऑनलाइन एजुकेशन होनी चाहिए कि नहीं तो दरअसल यह सवाल ही गलत है। अगर हम सवाल ऐसे ही पूछते रहे कि कक्षा होनी चाहिए, कि किताबें पढ़नी चाहिए कि नोट्स बनाने चाहिए कि खेल-कूद व्यायाम करना चाहिए कि गीत-संगीत-नाटक सीखना चाहिए कि कोई कौशल सीखना चाहिए आदि-आदि, तो इस सवाल का कोई औचित्य ही नहीं बनता। वास्तकिता में सवाल यह है कि शिक्षा क्या है और कौन-कौन से नये-नये तरीके हो सकते हैं उसे देने के लिए। बच्चों को/युवाओं को पढ़ना-लिखना, कौशल, तर्कशक्ति, रचनात्मकता, संवैधानिक मूल्य, लोकतंत्र, सहिष्णुता, साझी संस्कृति, कर्तव्य और ज़िम्मेदारियों का एहसास, स्वस्थ रहना, स्वच्छता, अनुशासन, साहस आदि का विकास करना शिक्षा का कार्य है। अब शिक्षा के इस उद्देश्य में आॅनलाइन एजुकेशन की कहां और कितनी आवश्यकता है, इस पर ही बात हो सकती है।

यह समझना होगा कि ऑनलाइन एजुकेशन अपने आप में एजुकेशन नहीं है। अब कोई रेलवे स्टेशनों पर बिकने वाली कुंगफू कराटे गाइड, या गिटार कैसे बजायें जैसी पुस्तकों से कुंगफू कराटे या गिटार बजाना तो नहीं सीख सकता!! उसके लिए तो अभ्यास ही करना पड़ेगा। कई मामलों में तो अभ्यास के दौरान प्रतिद्वंदी भी लगेंगे, निगरानी और मूल्यांकन के लिए शिक्षकों की भी ज़रूरत पड़ेगी। बस ऐसी ही ऑनलाइन एजुकेशन है। बल्कि वास्तव में वह ऑनलाइन क्लासेस हैं। क्योंकि शिक्षा के बाकी पहलू तो वैसे भी इस ऑनलाइन के दायरे से बाहर हैं। पुस्तकें ऑनलाइन (Soft Copy) हों या कागज की हों, उससे उन पुस्तकों की अंतर्वस्तु (Content) कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि शिक्षा का अर्थ केवल कक्षाओं तक ही सीमित नहीं है। हालांकि मौजूदा समय में तमाम सांस्कृतिक, खेलकूद, रचनात्मक गतिविधियां लगभग ठप्प सी होती जा रही हैं, और शिक्षा को मात्र कक्षा करने तक ही सीमित मान लिया जा रहा है। इस पर हम आगे चर्चा करेंगे। पर यदि मात्र कक्षा के स्तर पर ही देखें तो भी हमें ऑनलाइन क्लासेस की साथर्कता की पड़ताल करनी होगी।

3- ऑनलाइन क्लासेस और उनकी सार्थकता

एजुकेशन अर्थात शिक्षा तो एक ऐसा बहुआयामी (Multi-dimensional) अवधारणा है जो वास्तव में ऑनलाइन हो ही नहीं सकती परन्तु यदि केवल क्लास अर्थात् कक्षा के स्तर पर देखें तो भी ऑनलाइन कक्षाओं की सार्थकता पर कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न अवश्य उठते हैं। यहां भी मूल प्रश्न है कि कक्षाएं अर्थात् क्लास का उद्देश्य क्या होता है?

एक शिक्षक कक्षा में आकर अपने विद्यार्थियों को किसी विषय के बारे में बताता है तो उसे क्लास कहते हैं। पर अगर वही व्यक्ति उसी विषय पर वही बातें कहीं और, किन्हीं और लोगों के बीच करता है तो फिर उसे क्लास नहीं कहा जाता। उदाहरण के लिए सेमिनार, लेक्चर, सभाएं, भाषण इन सबमें चाहे जितनी भी ज्ञान की बातें बताई जायें ये ’क्लास’ नहीं होते। सवाल है कि ऐसा क्यों? कई बार ऐसा भी होता है कि अच्छा भाषण देने वाला, काफी ज्ञानी व्यक्ति भी अच्छा शिक्षक नहीं हो पाता।

वास्तव में कक्षा का सम्बन्ध विद्यार्थियों से होता है। अंग्रेज़ी में एक उक्ति है, Lecture deals with topic; Class deals with students] जिसका अर्थ है कि किसी लेक्चर, यानि व्याख्यान का सम्बन्ध उसके विषय से होता है, जबकि क्लास का सम्बन्ध विद्यार्थियों से होता है। इसलिए क्लास में क्रमबद्ध तरीके से पढ़ाया जाता है। उसका होमवर्क दिया जाता है। एक विद्यार्थी की मानसिक क्षमता के आधार पर पाठ्यपुस्तकों का चुनाव, पाठ्यक्रम (Syllabus), होमवर्क, टाइमटेबल कि क्या, कब और कितना पढ़ाना है, अध्यापक की स्वयं की तैयारी आदि सब के आधार पर कक्षाओं में शिक्षक पढ़ाने जाते हैं। इस प्रकार क्लास भी अपने आप में एक टीम वर्क अर्थात् सामूहिक कार्य होता है। क्लास ठीक ढ़ंग से चले इसके लिए दो बातें बहुत आवश्यक हैं पहली यह कि शिक्षक अपने छात्र-छात्राओं को ढ़ंग से पहचाने, उन्हें व्यक्तिगत तौर पर समझता हो और दूसरी यह कि शिक्षक और छात्र-छात्राओं के बीच सहज ढ़ंग से संवाद स्थापित हो।

पहली बात को लें तो शिक्षक ठीक ढ़ंग से छात्र-छात्राओं को जाने, इसी के लिए शिक्षक छात्र अनुपात (Teacher-Student Ratio) 1:20 अथवा अधिक से अधिक 1:30 को होना चाहिए। अर्थात् अधिक से अधिक 30 छात्र-छात्राओं पर एक शिक्षक अवश्य होना चाहिए। तभी वह एक-एक विद्यार्थी के बारे में पूरी-पूरी जानकारी रख सकता है।

दूसरी बात और भी महत्वपूर्ण है और वह है विद्यार्थी और शिक्षक के बीच बात-चीत और संवाद। यह संवाद भी दो प्रकार के होते हैं – सामूहिक अर्थात् कक्षा के स्तर पर और व्यक्तिगत यानि कक्षा के बाद। तमाम शिक्षाशास्त्रियों का मानना है कि यदि संवाद शैली में पढ़ाया जाये, यानि विद्यार्थियों से ही बात की जाये, सवाल पूछे जायें और उन्हीं सवाल-जवाब और बातों के क्रम में उन्हें बुनियादी ज्ञान दिया जाये तो वह अधिक टिकाऊ और सहज स्तर पर समझ में आने वाला होता है। प्रायः छात्र-छात्राएं भी ऐसे शिक्षकों को अधिक पसन्द करते हैं जो इस तरह की शैली में और विद्यार्थियों को सम्मिलित (Involve) करा कर बात-चीत (interact) करते हुए पढ़ाते हैं।

वास्तव में, किसी भी शिक्षक की सफलता इस बात में ही निहित होती है कि वह कक्षा को सभी विद्यार्थियों के लिए उपयोगी बना सके। कक्षा करने के बाद कक्षा के सबसे तेज़ और मेधावी विद्यार्थी को भी लगे कि कक्षा उसके लिए बहुत हल्की नहीं थी, उसमें उसके काम की भी चीज़ें थीं और कक्षा के सबसे कमज़ोर विद्यार्थी को भी लगे कि कक्षा बहुत भारी नहीं थी और उसमें उसके काम की भी चीज़ें थी। इस प्रकार पढ़ाना वस्तुतः एक बेहद रचनात्मक कार्य है। इस प्रकार की रचनात्मकता कई बार विद्यार्थियों के मन में दबे नये विचारों को भी सामने लाती है। इस प्रकार के नये विचार आगे चल कर शोध के माध्यम से देश-दुनिया को नये ज्ञान और तकनीक से भी लैस करते हैं। आॅनलाइन माध्यम से कक्षा की यह रचनात्मकता तथा विद्यार्थियों से संवाद गम्भीर रूप से प्रभावित होता है।

संवाद का दूसरा प्रकार है, व्यक्तिगत। जब एक शिक्षक कक्षा में पढ़ाता है तो वह इस पर भी नज़र रखता है कि अलग-अलग विद्यार्थियों की क्या प्रतिक्रिया है? सिर्फ शिक्षक जो बोल रहा है, वही मायने नहीं रखता; उसका विद्यार्थियों के साथ नज़र मिलाकर बात करना Eye-contact, उसका मुस्कुराना, किसी बच्चे के साथ प्रेम भरा स्पर्श भी बहुत महत्वपूर्ण है। यह भी सुनिश्चित करना होता है कि यदि कोई विद्यार्थी कक्षा में चुपचाप गुपसुम बैठा है, तो वह भी कक्षा के संवाद में हिस्सा ले, और यदि किसी विद्यार्थी में घमण्ड आ गया है, वह अधिक बोल रहा है तो उसे भी इस बात का एहसास कराया जाये। यदि विद्यार्थी कक्षा में गुमसुम है, तो कक्षा के बाद उससे अलग से बात की जाये कि उसका कक्षा में मन क्यों नही लग रहा? ऐसे बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाये। उनका पढ़ाई में मन लगे, इसके उपाय सोचे जाये। इस प्रकार का संवाद और विद्यार्थियों पर व्यक्तिगत स्तर पर ध्यान देना तो ऑनलाइन कक्षाओं में लगभग नामुमकिन सा है।

कक्षा में शिक्षक और विद्यार्थी का यह संवाद छोटी कक्षाओं में खासतौर और भी आवश्यक है। इसीलिए छोटी कक्षाओं में पढ़ाना तो और भी जटिल कार्य है। मौजूदा समय में भी देखें तो उच्च शिक्षा के लिए बी0एड0 आवश्यक नहीं है परन्तु छोटी कक्षाओं के लिए है। उच्च शिक्षा में तो विद्यार्थी अपने स्तर से भी सीखने-समझने का प्रयास कर सकता है परन्तु छोटी कक्षाओं के बच्चों से तो यह उम्मीद भी नहीं कर सकते। दूसरे उनकी संवेदनशीलता का स्तर भी अधिक होता है। बहुत छोटी-छोटी बातों से वे प्रोत्साहित और हतोत्साहित हो सकते हैं। उनके लिए शिक्षक का मुस्कुराना, उसका Eye-contact और भी अधिक मायने रखता है। साथ ही सामाजिक तौर पर हाशिए के तबके जैसे दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक, छात्राएं जिनके साथ समाज में भेदभाव होता है, उन्हें क्लास के भीतर मुख्यधारा में लाना, उनके आत्मविश्वास को जगाना, उन्हें अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करने के लिए समुचित अवसर प्रदान करना, इस सब के लिए भी कक्षा में शिक्षक द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर संवाद कायम करना बेहद महत्वपूर्ण है।

इस प्रकार केवल क्लास के स्तर पर भी देखें तो भी ऑनलाइन क्लास बहुत सार्थक नहीं है। उसमें संवाद की और इस कारण नये विचारों और रचनात्मकता की गुंजाइश कम है। विशेषकर कि छोटी कक्षाओं के लिए तो वह पूरी तरह से बेमतलब है। समाज में मौजूद गैर-बराबरी को पाटने में एक जीवंत कक्षा की जो भूमिका हो सकती है, वह भी ऑनलाइन कक्षा में सम्भव नहीं है।

4- ऑनलाइन शिक्षा: उसका विरोधउसका समर्थन

ऑनलाइन एजुकेशन के बारे में ऊपर कही तमाम बातों के बावजूद एकतरफा तरीके से आॅनलाइन क्लास का विरोध तो नहीं किया जा सकता। नई तकनीकें हमेशा के आती रही हैं; वे अपने साथ नई चुनौतियों और नई सम्भावनाओं को भी लेकर आती हैं। उस नई तकनीक के प्रति अभ्यस्त होने में भी समय लगता है। पर यह होना स्वाभाविक है और विज्ञान और प्राद्यौगिकी के इस युग में ऐसा होगा ही। और फिर कोरोना महामारी के समय जब भौतिक कक्षाएं सम्भव ही नहीं तो ऐसे में ऑनलाइन क्लासेस के अतिरिक्त क्या विकल्प है??

वास्तव में ऑनलाइन क्लासेस का कोई आंख मूंद कर विरोध है भी नहीं। पर व्यापक जनहित में तकनीक का इस्तेमाल करना और केवल मुनाफा कमाने के लिए उसे थोपने में अंतर है। ऑनलाइन माध्यम का सुव्यवस्थित और सुनियोजित इस्तेमाल नहीं हो रहा बल्कि उसे थोपा जा रहा है। निचली कक्षाओं तक में अध्यापकों से कहा गया है कि वे ऑनलाइन क्लासेस से छात्र-छात्राओं को जोड़ें। अब ज़मीनी हकीकत तो कुछ और ही है जिसका ऊपर हम ज़िक्र कर चुके हैं। तो ऐसे में छात्र-छात्राओं का ऑनलाइन कक्षाओं से जुड़ना सम्भव नहीं है। पर यदि शिक्षक सही-सही कह दें कि ऑनलाइन कक्षाओं से बच्चे नहीं जुड़ रहे तो उन पर दबाव डाला जाता है कि वे प्रयास नहीं कर रहे। ऐसे में तमाम शिक्षक मजबूरीवश यह ज़मीनी रिपार्ट (Ground Report) दे रहे हैं कि बच्चे लगातार आॅनलाइन कक्षाओं से जुड़ रहे हैं। इस तरह से दबाव के द्वारा झूठी रिपोर्ट मंगाने के पीछे क्या मंशा हो सकती है?? यही कि आगे इन्हीं रिपोर्टों के आधार पर ऑनलाइन कक्षाओं को स्थाई कर उन्हें भौतिक कक्षाओं के विकल्प के रूप में स्थापित कर दिया जाये। इसी को हम ऑनलाइन कक्षाओं को ’’थोपना’’ कह सकते हैं।

थोपने का एक अन्य उदाहरण नोटबंदी से भी समझा जा सकता है। नोटबंदी के दौरान एक नारा ’’नकदी रहित अर्थव्यवस्था” (Cashless Economy) का दिया गया था। कई शहरों में लोग ऑनलाइन पेमेण्ट करते हैं, इसका कभी भी किसी ने भी विरोध नहीं किया था, उसका कोई आधार भी नहीं था। पर आज भी गांव में खेतों में कटाई के समय कई खेत मज़दूर मज़दूरी के रूप में धान, गेंहू, आलू इत्यादि लेते हैं। यह एक प्रकार से वस्तु विनिमय (Barter Economy) ही स्वरूप है। अब जिन जगहों पर आज तक पूरी तरह से नकदी आधारित अर्थव्यवस्था (Cash based Economy) नहीं लागू हुई, वहां भी कैशलेस की बात करना, उन्हें और वंचित करने तथा और अधिक हाशिए पर ढकेलने जैसा है। जब तकनीक इस प्रकार से थोपी जाती है, तो वह समाज में असमानता की खाई को और चौड़ा कर देती है।

ऑनलाइन क्लासेस का यह थोपा जाना, शिक्षा को इसी दिशा में ले जायेगा। शिक्षा आम छात्र-छात्राओं से, विशेषकर कि हाशिए के तबके के छात्र-छात्राओं से दूर हो जायेगी। बावजूद इसके इन ऑनलाइन क्लासेस का महिमामण्डन (Glamourisation) किया जा रहा है। दो उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है। पहला यह कि नवम्बर-दिसम्बर महीने में जब पूरा लॉकडाउन समाप्त कर दिया गया, सारा जनजीवन पटरी पर आ गया तब भी विश्वविद्यालय और महाविद्यालय बंद रहे। सिनेमा हॉल खुल गये पर उच्च शिक्षण संस्थान नहीं। दिलचस्प बात यह है सिनेमा हॉल में हर शो में अलग-अलग लोग आते हैं और इस कारण वहां संक्रमण का खतरा अधिक रहता है जबकि शिक्षण संस्थान और छात्रावासों में वही छात्र-छात्रा हमेशा जाते हैं और वहां संक्रमण को नियंत्रित करना अपेक्षाकृत सरल है। पर बावजूद इसके ऑफलाइन अथवा भौतिक कक्षाओं की गुंजाइश होने के बावजूद उन्हें न खोला जाना, इस बात का ही संकेत है कि छात्र-छात्राओं के जानबूझकर ऑनलाइन शिक्षा की ओर ढकेला जा रहा है।

इसी प्रकार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू0जी0सी0) के सचिव प्रो0 रजनीश जैन द्वारा 20 मई 2021 को जारी किये गये एक नोटिस तथा उसके साथ जारी किये गये एक नोट को देखा जा सकता है, जिसमें उच्च शिक्षा में 40 फीसद तक ऑनलाइन एजुकेशन की वकालत की गई है। इस नोट की विशेष बात यह है कि इसमें कहीं भी महामारी का ज़िक्र नहीं है, बल्कि नई शिक्षा नीति का ज़िक्र है। मतलब यह कि ऑनलाइन एजुकेशन को महामारी के कारण एक वैकल्पिक व्यवस्था के स्थान पर नहीं, बल्कि एक समूचे नीतिगत परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है। दूसरे, उसे 40 फीसद तक करने की बात की जा रही है। अब इस 40 फीसद का क्या औचित्य हो सकता है?

उच्च शिक्षण संस्थान को स्वायत्त होना चाहिए। मतलब यह कि सरकार उसके लिए फण्ड उपलब्ध कराये तथा वे संस्थान स्वयं शिक्षकों और छात्र-छात्राओं, विशेषज्ञों की सहायता से अपना पाठ्यक्रम और उसे पढ़ाने का तरीका तय करें। इसीलिए विश्वविद्यालयों के लिए जो आयोग बना है उसका नाम ही है, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission) क्योंकि उसका मुख्य कार्य विश्वविद्यालयों को अनुदान देने अर्थात उनके लिए फण्ड आवंटित करना है, न कि विश्वविद्यालय में अध्ययन-अध्यापन के लिए सारी बारीकियां तय करना।

साथ ही स्वयं यू0जी0सी0 द्वारा जारी नोट का दावा है कि उसका 40 फीसद ऑनलाइन एजुकेशन का यह कदम इसलिए है कि शिक्षा के छात्र केन्द्रित (Students Centric) बनाया जाये और उसे लचीलापन (Flexibility) हो। अब सवाल यह है कि क्या शिक्षकों, विशेषज्ञों और सबसे महत्वपूर्ण छात्र-छात्राओं से ये राय ली गई कि शिक्षा के बारे में उनके अनुभव और विचार क्या हैं? यदि नहीं तो यू0जी0सी0 का यह कदम छात्र केन्द्रित कैसे हो सकता है??

साथ ही अध्ययन-अध्यापन में लचीलेपन का क्या अर्थ हो सकता है? इसका अर्थ होगा कि विज्ञान के विषयों में प्रयोग (Practical) कितने होने चाहिए, भूगोल में टूर (Educational tour) कितने होने चाहिए, शारीरिक शिक्षा में खेल-कूद, विधि (LLB) में मूट कोर्ट (Moot Court) संगीत में रियाज़, दृश्यकला (Fine Arts) में पेण्टिंग, सामाजिक विज्ञान में फील्ड वर्क, पेपर प्रस्तुत करना आदि के क्या मानक होने चाहिए। महिला अध्ययन केन्द्र (Women Studies) लैंगिक संवेदीकरण (Gender Sensitisation) के लिए नये-नये तरीके अपनाये। एन0एस0एस0 छात्र-छात्राओं में सेवा भाव, राष्ट्रीय चेतना, पर्यावरण जागरूकता के लिए नये प्रयोग करे। कहने का अर्थ यह है कि शिक्षा विशेषकर कि उच्च शिक्षा बहुआयामी होती है। इस पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं। फिर अलग-अलग विषयों की शिक्षा के अपने अलग-अलग तरीके हो सकते हैं। लचीलेपन का अर्थ तो होगा कि सम्बन्धित विषयों से जुड़े लोग उसके बारे में तय करें कि शिक्षा कैसे दी जाये।

परन्तु जब विश्वविद्यालयों को अनुदान देने वाली संस्था पठन-पाठन में भी अनावश्यक दखल देने लगे, छात्र केन्द्रित शिक्षा देने का दावा किया जा रहा हो पर छात्र-छात्राओं की राय और उनके अनुभवों को जानने की न्यूनतम कोशिश तक न की गई हो, किसी ज़मीनी सच्चाई को ध्यान में न रखा गया हो और अध्ययन-अध्यापन के लचीलेपन के नाम पर केवल ऑनलाइन एजुकेश नही दिखाई दे तो सरकार की मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। और यह कहा जा सकता है कि ऑनलाइन एजुकेशन का अनावश्यक महिमामण्डन किया जा रहा है और उसे थोपा जा रहा है।

इसका कारण समझना भी अधिक कठिन नहीं है। इसका मूल कारण है शिक्षा का व्यवसायीकरण। शिक्षा के व्यवसायीकरण ने दोतरफा असर डाला है। पहला है शिक्षा पर खर्च में कटौती तथा दूसरा है शिक्षा की बुनियादी अवधारणा को ही प्रभावित कर देना। शिक्षा के व्यवसायीकरण का अर्थ है शिक्षा को बाज़ार में बेचने-खरीदने की एक वस्तु की तरह देखना। लोग पैसा खर्च करें और शिक्षा पायें। शिक्षा का राष्ट्र निर्माण से या नये प्रगतिशील जनवादी सामाजिक मूल्यों से कोई सरोकार नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में शिक्षा पर सरकार क्यों खर्च करे? इसी कारण लगातार शिक्षा के जो बाकी पहलू हैं जैसे खेल-कूद, रचनात्मक एवं सांस्कृतिक गतिविधियां, लोकतांत्रिक मूल्यों से युवाओं को लैस करना, छात्र राजनीति आदि में भयानक गिरावट आती जा रही है। यहां तक कि शिक्षकों की भर्ती, छात्रवृत्ति, विद्यालय की बिल्डिंग, हॉस्टल, ट्वायलेट जैसी मूलभूत ज़रूरतों तक पर खर्चे में कटौती की जा रही है। ऐसी में यदि ऑनलाइन शिक्षा को एक समूचे मॉडल की तरह विकसित कर दिया जाये तो बड़े आराम से शिक्षा पर तमाम किये जाने वाले खर्चों में कटौती की जा सकेगी। न बिल्डिंग की ज़रूरत, न स्थाई शिक्षक, न ड्रेस, न मिड-डे-मील सभी खर्चों पर आसानी से कटौती की जा सकेगी।

शिक्षा, जो बिल्कुल बाज़ार की वस्तु बन गई है, उसे सिर्फ समाज का वह छोटा सा तबका ही हासिल करेगा, जिसे यह उम्मीद होगी कि शिक्षा लेने के बाद वह अच्छा कमा-धमा सकेगा। दरअसल जब एक अभिभावक को स्वयं अपनी जेब से लगातार मंहगी होती शिक्षा का खर्च वहन करना पड़ता है, तो वह यह हिसाब लगाने पर मजबूर हो जाता है कि पढ़ाई-लिखाई के बाद उस शिक्षा से व्यक्ति कितना कमा-धमा पायेगा। इसी सोच के चलते ही यह तर्क निकलते हैं कि ’अगर पढ़-लिख कर फावड़ा ही चलाना है तो पढ़ने की क्या आवश्यकता है?’। मतलब सिर्फ उन्हीं लोगों को पढ़ना चाहिए जो कुछ अच्छी कमाई वाली नौकरियां कर सकें। बाकी के लिए पढ़ाई की कोई ज़रूरत नहीं। ऐसे में जिन लड़कियों के लिए यह कहा जाता है कि ’चूल्हा-चौका ही करना है, तो पढ़ने की क्या ज़रूरत है?’, वह जो थोड़ी-बहुत शिक्षा प्राप्त कर ले रही है, उससे भी वे दूर हो जायेंगी। जो गरीब, दलित, अल्पसंख्यक तथा हाशिए के तबके के छात्र हैं, उनके लिए भी पढ़ाई और कठिन हो जायेगी।

हमारी भूमिका

कोई भी प्रगतिशील जनवादी छात्र आन्दोलन कभी भी किसी नई तकनीक का एकतरफा विरोध नहीं कर सकता परन्तु साथ ही तकनीक को जबरन थोपे जाने का स्वीकार भी नहीं कर सकता। कवि धूमिल की एक कविता है, ’’लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो, जिसके मुंह में लगाम है’’। शिक्षा के बारे में कोई भी फैसला कभी भी छात्र-छात्राओं, शिक्षकों, कर्मचारियों, बुद्धिजीवियों के साथ बिना व्यापक विचार-विमर्श के नहीं लिया जा सकता। चंद लोगों द्वारा अलोकतांत्रिक और मनमाने तरीके से थोपा गया फैसला कभी सही नतीजे नहीं दे सकता।

ऑनलाइन शिक्षा को थोप कर जो नई असमानता ’डिजिटल डिवाइड’ के रूप में सामने आ रही है, वह समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को शिक्षा से दूर कर देगी। ऐसा कोई भी फैसला जो ऑनलाइन शिक्षा को एक स्थाई मॉडल के रूप में स्थापित करने वाला हो, उसका विरोध होना ही चाहिए।

कुछ विशेष स्थितियों में, कुछ विशेष समय में ऑनलाइन कक्षाएं हो सकती हैं; आने वाले समय में वे कुछ और भूमिकाएं भी निभा सकती हैं; परन्तु आज के समय में वह छात्र समुदाय के व्यापक हिस्से के लिए अव्यवहारिक है। जब ऑनलाइन कक्षाएं हो भी, तब भी आधारभूत संरचना, डिजिटल लिटरेसी, ऑनलाइन कक्षाओं के प्रति जागरूकता को भी सुनिश्चित किये जाने के ठोस प्रयास होने चाहिए, जिससे अधिक से अधिक छात्र-छात्राएं इसका लाभ उठा सकें।

साथ ही शिक्षा के व्यवसायीकरण के खिलाफ भी एक व्यापक वैचारिक तथा जनान्दोलन की आवश्यकता है जो शिक्षा की राष्ट्र निर्माण तथा एक प्रगतिशील, वैज्ञानिक, समतामूलक समाज की स्थापना की भूमिका को स्थापित कर सके। जिससे कोई भी नई तकनीक शिक्षा के बहुआयामी चरित्र को मजबूत करने में मदद करे, न कि तकनीक के आधार पर एक नई असमानता को पैदा करे।

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