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नई शिक्षा नीति 2020 के प्रारंभिक रुझान: मालिनी भट्टाचार्य

Francis Mascarenhas/Reuters

मालिनी भट्टाचार्य

नई शिक्षा नीति 2020 कस्तूरीरंगन रिपोर्ट से कहीं ज्यादा संक्षिप्त और सावधानी पूर्वक लिखी गई है और रिपोर्ट की विवादित लग सकने वाली बातों को सुधार लिया गया है तथा राजनीतिक रूप से सही चीज़ें को भी शामिल कर लिया गया है जो रिपोर्ट में छूट गईं थी. हालाँकि विषयवस्तु अब भी बहुत भिन्न नहीं है जिसे सतही तौर पर पढ़ते वक़्त नज़रअंदाज़ होने की संभावना बनी रहती है.

कस्तूरीरंगन रिपोर्ट के विपरीत नई शिक्षा नीति नज़रंदाज़ कर दी गई खूबियों वाली पिछली नीतियों, जो समता पर बल देती थी, पर उतने जोर शोर से नहीं बात करती है. यह दस्तावेज समता और समावेश पर कई बार बात तो करता है और यह भी कहता है कि इसमें 1986 की शिक्षा नीति की खामियों को बखूबी सुधार गया है. यह कस्तूरीरंगन रिपोर्ट से कहीं ज्यादा बार ‘वैज्ञानिक चिन्तन और तार्किक सोच’ की बात करती है. ड्राप-आउट दर को घटाने के लिए यह वैकल्पिक शिक्षण केन्द्रों की बात करती है जिससे पढ़ाई से छूटने वालों को मुख्यधारा में लाया जा सके. नाश्ते और भोजन की व्यवस्था प्री-स्कूल से ही होनी है. व्यावसायिक शिक्षा को मुख्यधारा में समाहित किया जाएगा. सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों (एसईडीजी) के लिए यह दस्तावेज प्रयास और फण्ड बढ़ाने की बात करता है और कस्तूरीरंगन रिपोर्ट से इतर यह उन्हें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिलाओं और विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों के रूप में उल्लेख करता है. यह ‘जेण्डर समावेशी निधि’ और एसईडीजी प्रभावित क्षेत्रों के लिए ‘विशेष शिक्षा क्षेत्रों’ के गठन की बात भी करता है. यह दिव्यांग बच्चों के लिए विशेष अध्यापकों के नियुक्ति की बात करती है. यह विद्यालयों में अध्यापकों की सारी रिक्तियों को भरने की बात करती है तथा उन्हें शिक्षणेत्तर गतिविधियों से भी बचने की बात करती है. यह शिक्षा में मातृभाषा को प्राथमिकता देती है और शिक्षा को लोक सेवा मानते हुए यह बात भी करती है इसका व्यवसायीकरण नहीं हो सकता है या इसे लाभ कमाने का जरिया नहीं बनाया जा सकता है. ये सारी चीजें ही गैर-अपवाद की हैं. लेकिन नई शिक्षा नीति के इस दस्तावेज के समग्र अध्ययन और इसकी गहराई से पड़ताल करने पर जो शंकाएं उठती हैं वो ख़त्म नहीं होने वाली हैं.

वित्त

इसका खोखलापन वित्त के छोटे से अनुभाग से स्पष्ट होता है. यह बाल्यावस्था शिक्षा/ बुनियादी साक्षरता और संख्याज्ञान/ स्कूल काम्प्लेक्स/क्लस्टरों के लिए संसाधनों/ भोजन और पोषण/ शिक्षकों के प्रशिक्षण में निवेश/ उत्कृष्टता पाने के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों (एचईआई) में सुधार लाने/ शोध के विकास इत्यादि पर क्षेत्रों (26.4) पर जोर देती है. बहुत अच्छी बात है. लेकिन इन महत्वाकांक्षी प्रस्तावों के लिए निधियां कहाँ से आएंगी? यह दस्तावेज़ केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की और से शिक्षा पर निवेश जल्द से जल्द से बढ़ा कर जीडीपी का 6% करने का समर्थन और कल्पना तो करती है और अगले १० सालों में सार्वजनिक खर्च का 20 प्रतिशत करने की बात करती है (26.2). जब तक फण्ड से जुड़े स्पष्ट प्रावधान नहीं किये जाते हैं तब तक यह वैसे ही जैसे पिछले दस्तावेज में प्रस्तावित है. एक तरफ तो यह नीति यह बात करती है कि शिक्षा का व्यवसायीकरण नहीं होना चाहिए वहीँ दूसरी ओर यह सरकारी संस्थानों को बजट के लिए निजी फिलोंथ्रोपिक ( दस्तावेज के हिंदी अनुवाद में फिलोंथ्रोपिक के लिए परोपकारी शब्द का इस्तेमाल हुआ है. इसका आशय उन निजी संस्थानों से समझा जाय जो समाज सेवा या समाज की भलाई करने का दावा करते हुए शिक्षा क्षेत्र में निवेश कर रहे हैं.) की सहायता लेने के लिए प्रोत्साहित करती है (26.6). सवाल ये है कि अगर शिक्षा में पर्याप्त सरकारी निवेश किया ही जा रहा है तो निजी संस्थानों से से सहायता लेने पर बल क्यों दिया जा रहा है और निजी संसथान योजनाओं के फण्ड के लिए इन तथाकथित परोपकारी संस्थानों के पास ही क्यों जाएं? क्या यह मान के चला जा रहा है कि उनमें इस तरह की गैर अकादमिक गतिविधियों की भी क्षमता होगी?

‘पारम्परिक शिक्षा’

दस्तावेज सतत विकास एजेंडा 2030 को शिक्षा के क्षेत्र में सुझाए गए इन बदलावों का आधार बताता है. निसंदेह ये बदलाव भारतीय परिपेक्ष्य में भारतीय ज़रूरतों के हिसाब से ही होने चाहिए. लेकिन, कस्तूरीरंगन रिपोर्ट की ही तर्ज़ पर “भारतीय शिक्षण परम्पराओं” की तरफ अतीत में देखते हुए यह बहुत सफाई से ‘संस्कृत शिक्षा पद्धति,’, तक्षशिला, नालंदा, चरक और आर्यभट्ट की बात करती है लेकिन हमारी मध्यकालीन विरासत और इस्लामिक शिक्षा पद्धति के साथ साथ आधुनिक भारत में उपनिवेश विरोधी अन्दोलानों के साथ साथ विकसित राष्ट्रीय शिक्षा को नज़रअंदाज़ कर देती है (पृष्ठ 4-5). जितनी बार भारतीय आचार-व्यवहार, भारतीय कला और संस्कृति, की बात हुई है दस्तावेज भारत की महान समरसतावादी विरासत को दरकिनार कर के बहुत सीमित क्षेत्र में सिमट जाता है. भारत की भाषाई परम्पराओं का बखान करते हुए भी यह नीति उर्दू के योगदान का ज़िक्र नहीं करती है. और इन सबके ऊपर ‘भारतीय जड़ों और गौरव से बंधे रहने’ (पृष्ठ 7) की बात करती यह नीति अवैज्ञानिक, अस्पष्ट, छिछले, यहाँ तक की ऐसे फर्जी शैक्षणिक कोर्सों को भी ‘मूल्य आधारित शिक्षा’ (11.8) तथा ‘भारत के ज्ञान’ के नाम पर शुरू करने लिए उपयोग की जा सकती है जिसमे विद्यार्थी बिना मेहनत किये आसानी से क्रेडिट ले सकें.

Students at a school in Mumbai | Jerry Cooke/Corbis, Getty

मिड-डे मील

दस्तावेज प्री-प्राइमरी से लेकर 12वीं तक शिक्षा की एक समग्र प्रणाली की परिकल्पना करता है. गौरतलब है हमारे यहाँ आंगनवाड़ियों और बालवाड़ियों के पास पहले से ही प्ले स्कूल स्तर के बच्चों के लिए ऐसी योजनाएं मौजूद हैं. ये महिला और बाल विकास मंत्रालय से जुडी परियोजनाएं हैं. इन्ही परियोजनाओं को और विस्तृत किया जा सकता था और व्यापक पैमाने पर ‘शिशु घर’ जैसी व्यवस्था को स्थापित किया जा सकता था. तो फिर एक बच्चे को ‘6 साल की उम्र तक स्कूल के लिए तैयार हो जाने’ के उद्देश्य से तीन साल की उम्र में ही स्कूल भेजने का क्या तुक है? कई शिक्षाविद इसे बच्चों पर अतिरिक्त दबाव के रूप में देख रहे हैं. आंगनवाड़ी, दरअसल, गर्भवती औरतों और नवजात शिशुओं, जब तक कि वे 6 साल के नहीं हो जाते, के देख रेख से सम्बंधित एक एकीकृत परियोजना है. अब अगर आंगनवाड़ी का एक हिस्सा, जो बच्चों प्री-स्कूल से जुड़ा हुआ है, उसे स्कूल सिस्टम के अधीन कर स्कूल काम्प्लेक्स (1.6)से जोड़ दिया जाता है तो बाकी के हिस्सों का क्या होगा? क्या यह पोषण और शिशु स्वास्थ्य सुनिश्चित करने वाली परियोजना के ख़त्म किये जाने का संकेत है?

Karnataka | The Hindu

मिड-डे मील का दायरा प्री-स्कूल तक बढाया जाना है तथा बुनियादी स्तर से इसमें सुबह का नाश्ता और दोपहर का भोजन, दोनों शामिल किया जाना है. लेकिन ये सब चीज़ें शहरी स्तर पर केंद्रीयकृत रसोईघरों और गांवों में चिन्हित क्लस्टरों के माध्यम से उपलब्ध कराई जाए या फिर पहले से ही तैयार एक ‘साधारण लेकिन पोषक आहार’ उपलब्ध कराई जाएंगी (2.9). इस प्रकार नियमित कर्मचारियों या रसोइयों के द्वारा ताजा बने खाने के बजाय भोजन की ज़िम्मेदारी को बाहरी स्रोतों के हवाले छोड़ने या पहले से बने खाने पर आश्रित होने जैसे विवादित प्रावधानों को वापस लाया जा रहा है. यदि भोजन की व्यवस्था की ज़िम्मेदारी गैर सरकारी संस्थाओं या धार्मिक संस्थाओं को सौंप दी जाती है तो यह क्षेत्रीय लोगों और समुदायों के नियंत्रण से बहार हो जाएगी तथा सरकारी पैसे से व्यापर का एक जरिया बन जाएगी. क्या यह बात स्वीकार की जा सकती है?

‘बहुभाषावाद’

चलिए अब प्रीस्कूल लेवल पर ‘बहुभाषावाद’ के विषय पर आते हैं. हालाँकि इस बात को कस्तूरीरंगन रिपोर्ट के अपेक्षा बहुत शांत तरीके से रखा गया है और अपने आस पास के माहौल से भाषाएँ सीखने की बच्चों (दो साल से 8 साल तक के) की योग्यता को लैंग्वेज-लर्निंग (आस पास से के माहौल से इतर कोई भाषा जो उस क्षेत्र या लोगों के लिए नई हो) के साथ मिला दिया गया है (4.12-4.13). ‘बच्चे को प्रारम्भिक स्तर से ही विभिन्न भाषाओ में एक्सपोज़र दिए जाने’ का यह प्रस्ताव इस दस्तावेज की मातृभाषा में शिक्षा दिए जाने के दावे का मजाक बना देता है. यह तथाकथित एक्सपोज़र एक तीन साल के बच्चे, जिसके माहौल में इन अन्य भाषाओं का एक्सपोज़र नहीं है, के लिए अतिरिक्त भार की तरह होगा और उन्हें भ्रमित कर देगा. त्रिभाषीय फ़ॉर्मुले से यह दिखावटी प्रेम इसे भनाने वाले उन शिक्षाविदों की संस्तुतियों को भूल कर किया जा रहा है जिसमे उन्होंने इसे बहुत सहज ढंग से 5वीं कक्षा के बाद रखने की बात की थी. यह भी स्पष्ट है इस एक्सपोज़र के माध्यम से प्राथमिकता सिर्फ हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत को ही दी जाएगी. फाउंडेशन स्तर पर संस्कृत की पाठ्यपुस्तकों को लागू करने की यह महत्वाकांक्षी योजना स्पष्ट करती है की है प्राथमिकता संस्कृत को ही दी जाएगी परन्तु ज्ञानार्जन या सिखाने के लिए नहीं बल्कि सिर्फ इसके बखान को बढाने के लिए. एक छोटे से बच्चे पर शिक्षा का इतना बोझ लाद देना पाठ्यक्रम को हल्का और पूछताछ आधारित बनाने के दावे को झुठला देता है. और हम, कोविड संकट इस बात को अच्छे से देख चुके हैं की पाठ्यक्रम को हल्का बनाने के नाम पर क्या क्या चीज़ें छांटी जाएंगी सो इस प्रस्ताव पर और क्या ही बात की जाए.

स्कूल काम्प्लेक्स

प्रभावी गवर्नेन्स और एकीकृत विकास योजना के लिए माध्यमिक विद्यालयों (कक्षा 6 से 8 तक के विद्यालय) के नेतृत्व में एक ही क्षेत्र के प्री-स्कूलों और प्राथमिक विद्यालयों को एक स्कूल काम्प्लेक्स (7.1.-7.2) के अंतर्गत लाने की बात भी इस दस्तावेज में कस्तूरीरंगन रिपोर्ट के अपेक्षाकृत बहुत सावधानी से रखी गई है. लेकिन गांवों और बहुत पिछड़े दूर दराज इलाकों में स्थित विद्यालयों की भौतिक दूरी इससे कम तो नहीं की जा सकती है और संसाधन साझा करने के नाम पर यदि इन विद्यालयों की उत्पादकता नहीं बढ़ी तो ये “कम संख्या या कमज़ोर” स्कूल “कमज़ोर” के कमज़ोर ही रह जाएंगे और मजबूत स्कूल व्यय के एक बड़े हिस्से की मांग करेंगे क्योंकि उनके पास साझे संसाधनों के बड़े साझीदार होंगे.

Punit Paranjpe/Reuters

तथाकथित ‘एसईडीजी-प्रभावित क्षेत्रों’ (6.6-6.9) और इन क्षेत्रों की लड़कियों और ट्रांसजेंडर विद्यार्थियों के लिए योजनाओं पर अतिरिक्त खर्च सुनने में अच्छा लगता है उसी तरह जैसे दिव्यांग बच्चों पर अतिरिक्त खर्च करना. हालाँकि यह पूरी तरह से फण्ड की उपलब्धता पर निर्भर होगा. लेकिन, ‘स्कूल काम्प्लेक्सों’ में भी जहाँ इन एसईडीजी प्रभावित क्षेत्रों के उपरोक्त विद्यार्थी दुसरे क्षेत्रों के विद्यार्थियों—या दुसरे शब्दों में कहें तो ‘पडोसी स्कूलों’—के साथ बैठ कर पढेंगे बहुत संभव है की उनकी आवश्यकताएं नज़रान्दाज़ कर दी जाएंगी. इस तरह की केंद्रीयकृत प्रणाली का उद्देश्य अस्पष्ट ही रहता है.

बोर्ड परीक्षाएं और मूल्यांकन

राष्ट्रीय मूल्यांकन केन्द्र ज़रिये एक ऐसा ही केन्द्रीयकरण करने के अलावा एक प्रस्ताव यह भी है की स्कूली विद्यार्थी बोर्ड परीक्षाओं में चार बार (कक्षा 3, 5, 8, और 12वीं में) आवश्यक रूप से हर साल दो बार वैकल्पिक रूप से शामिल होंगे (4.38-4.43). क्या बोर्ड ‘परीक्षा का दबाव’ सिर्फ परीक्षा में बार बार बैठ कर ही कम किया जा सकता है? यदि परिणाम को गुप्त भी रखा जाय तो भी तीसरी और पांचवी कक्षा के बच्चों पर इसका क्या प्रभाव पड़ने वाला है? क्या यह बेहतर नहीं होता की आठवीं तक बराबर इंटरनल परीक्षाओं के माध्यम से बच्चे का सतत मूल्याङ्कन किया जाता रहे और वो जो अच्छे अंक हासिल नहीं कर रहे हैं उन्हें सीखने और स्वयं में सुधार के लिए प्रेरित किया जाता रहे? ये बदलाव विद्यार्थियों को दबावों और नवउदारवादी दौर के गलाकाट प्रतिस्पर्धा का सामना करने में कैसे मददगार होंगे? भिन्न भिन्न राज्यों और क्षेत्रों के भिन्नता और विश्वविद्यालयों की अपनी विशिष्ट ज़रूरतों को दरकिनार करते हुए इस दस्तावेज में विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षाओं को भी राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) के माध्यम से केंद्रीयकृत करने की कवायद हो रही है.

उच्च शिक्षा, बहुविषयक

उच्च शिक्षा की तरफ बढ़ते हैं. विद्यार्थियों की 50 प्रतिशत आबादी को उच्च शिक्षा में के दायरे में लाने का लक्ष्य लिया गया है ताकि कोई भी विद्यार्थी आर्थिक कारणों से उच्च शिक्षा से वंचित ना रह जाए. यहाँ “बहु-विषयक” नाम का एक जादुई शब्द इस्तेमाल किया गया है. ‘उच्च शिक्षा में विखंडन’ को समाप्त करने के लिए यह प्रस्ताव पेश किया गया है कि उच्च शिक्षा प्रणाली के दायरे में 3000 या उससे अधिक विद्यार्थियों की क्षमता वाले बड़े ‘विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और एचईआई क्लस्टर/नॉलेज हब’ ही आएँगे (10.1). उत्कृष्ट संस्थानों में या तो नालंदा और तक्षशिला हैं और अमेरिका के ‘आइवी लीग विश्वविद्यालय’ , जिनका एक दूसरे से कोई लेना देना नहीं है! इनकी अनुकरण करने के लिए ज्ञान के रास्ते में व्याप्त ‘हानिकारक हायार्की (जिसके लिए दस्तावेज के हिंदी अनुवाद में ऊँच-नीच शब्द का इस्तेमाल किया गया है) को ख़त्म करने’ तथा विषयों की ‘असंबद्धता तोड़ने’ का प्रस्ताव दिया गया है किसी बहुविषयक उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके.

Students at Delhi University | IANS

हालाँकि मेरू (बहुविषयक शिक्षण और शोध विश्वविद्यालय), आरयू ( शोध केन्द्रित विश्वविद्यालय), टीयू (शिक्षण केन्द्रित विश्वविद्यालयों) और स्वायत्त संस्थानों के नाम से एक नए किस्म की हायार्की या उंच-नीच की अवधारणा रखी जा रही है. अब जबकि उच्च शिक्षा में हायार्की के इस ऊपर के स्तर पर हो रही गतिशीलता को ख़ारिज किया नहीं गया है यह अकादमिक जगत में शिक्षण और शोध को अलग अलग करने में निर्णायक साबित होगी. इसके साथ साथ छोटे कोर्स चलाने वाले छोटे संस्थानों को विस्तार करने या विनाश होने के लिए बाध्य करना कठोर कदम है जो दूर दराज वाले इलाकों में ज़रूरी उद्देश्यों की पूर्ती करने वाले इन संस्थानों को भी अन्य गैर व्यावहारिक संस्थानों की तरह ख़त्म कर देगा. यहाँ तक की दवाओं और तकनीकी के क्षेत्र में काम करने वाले रोजगारपरक संस्थानों को भी बहुविषयक होने के लिए बाध्य किया जा रहा है भले ही उन्होंने इतने वर्षों में स्वयं को किसी एक क्षेत्र में पारंगत बना लिया हो.

चलिए अब यह समझने की कोशिश करते हैं कि माध्यमिक विद्यालयों से शुरू होने वाली यह ‘बहुविषयकता (मल्टीडिसिप्लिनरिटी)’ क्या इंगित करती है. सारे विद्यार्थी और अध्यापक इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि अध्ययन-अध्यापन के दौरान एक समय ऐसा आता है ज्ञान के सृजन के लिए कुछ निश्चित दूसरी धाराओं या दुसरे डिसिप्लिन्स के सिद्धांतो और नियमों की मदद लेना, या अंतरविषयी (इन्टरडिसिप्लिनरी) अनिवार्य हो जाता है. लेकिन इस दस्तावेज में मल्टीडिसिप्लिनरिटी या बहुविषयकता अलग अलग धाराओं के कोर्सों या ‘नवीन कोर्सों’ या ‘भारत के ज्ञान’ देने वाले कोर्सों के मिश्रण के रूप में हमारे सामने ठीक वैसे रखी गई है जैसे पसंद करने के लिए मिठाई की दूकान पर मिठाइयाँ सजा कर के रखी गई हों. विद्यार्थी ‘पसंद आधारित क्रेडिट सिस्टम (सीबीसीएस)’ के द्वारा अपने कोर्स सकते हैं, किसी भी वक़्त इस मिठाई की दूकान में घुस सकते हैं-निकल सकते हैं, अपने पॉइंट्स के हिसाब से एक साल से चार साल भर में से बिताए गए समय के हिसाब से सर्टिफिकेट, डिप्लोमा या डिग्री लेकर बाहर आ सकते हैं. यह उन संस्थानों को जो किसी भी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध नहीं हैं उन्हें सिर्फ डिग्री देने वाली दुकानों के रूप में बदल देगा, यहाँ तक की थोड़ी बहुत शोध की क्षमता वाले उच्च शिक्षण संस्थानों में भी सिर्फ क्रेडिट्स बटोरने के लिए धाराओं का यह जमावड़ा अकादमिक समुदाय की सयुंक्त गतिविधि के रूप में ज्ञान के सृजन और शिक्षा की विषय-वस्तु और उसके उद्देश्यों को ही ख़त्म कर देगा. ऑनलाइन दूरस्थ शिक्षा (ओडीएल), जो काफी लोकप्रिय होती जा रही है और जिसकी उपयोगिता निसन्देह नकारी नहीं जा सकती है, किस सहायता से ‘मल्टीडिसिप्लिनरिटी’ के बोझ तले शिक्षा का विमूल्यीकरण और तेज़ हो जाएगा.

तब फिर गुणवत्ता का क्या? मानकों का क्या? यहाँ फिर से भारतीय उच्चतर शिक्षा आयोग के नाम से सारी ताकतों वाला एक केन्द्रीयकृत निकाय हमारे सामने आ जाता है. कस्तूरीरंगन रिपोर्ट इसका मुखिया प्रधानमंत्री को बनाने की सिफारिश करती थी लेकिन यह दस्तावेज इसे एक फेसलेस (पहचान मुक्त) और पारदर्शी नियामक हस्तक्षेप, जो हल्का-फुलकी मगर मजबूत भी हो, करने वाले निकाय के रूप में देखना पसंद करता है. इसके निकाय के पास विनियमन, मान्यता, फण्डिंग और मानकों को तय करने के लिए चार उर्ध्वाधर भुजाएं होंगी और ये इन सारे सवालों पर उच्च स्तर पर निर्णय लेगी. इसके नियंत्रण में रास्ट्रीय शोध फण्ड भी गठित होना है.

स्वायत्तता

इस दस्तावेज में स्वायत्तता, अध्यापकों के शशक्तिकरण, गवर्नेन्स में भागीदारी की बहुत बात की गई है. हालाँकि स्कूल काम्प्लेक्स के गवर्नेंन्स में अध्यापकों की भूमिका का कोई उल्लेख नहीं है और उच्च शिक्षण संस्थानों की गवर्नेन्स प्रणाली स्वायत्तता का अच्छा मज़ाक बनाती है. उच्च शिक्षण संस्थाओं के स्तर पर ‘स्वायत्तता’ का मतलब शक्तियों के संकेन्द्रण, बोर्ड ऑफ़ गवर्नेन्स के हाथो में कर दिया जाएगा जो ‘योग्य सक्षम और समर्पित व्यक्तियों जिनमे सिद्ध क्षमताएं और प्रतिबद्धता की एक मजबूत भावना होगी’ (19.2) वाले लोगों से मिलकर बनी होगी और किसी भी राजनीतिक या बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त होगी. हालाँकि हमें यह नहीं बताया गया है की इस बोर्ड में एक भी सदस्य अकादमिक जगत से होगा या नहीं. वे सारी नियुक्तियां करेंगे यहाँ तक एचईआई में नेतृत्वकारी भूमिका और अपने उत्तराधिकारियों का चयन भी स्वयं करेगा जो इसी के द्वारा गठित एक उत्कृष्ट विशेषज्ञ समिति द्वारा नियुक्त किये जाएंगे. बोर्ड ऑफ़ गवर्नेन्स (बीओजी) के सदस्य ही गवर्नेन्स, नियम बनाने,और कामकाज के तौर तरीकों के लिए उत्तरदायी होंगे. और इस प्रकार लोकतन्त्र और एचईआई के अपने हितधारक कहीं पीछे छोड़ दिए जाएंगे. शिक्षकों की नियुक्ति ‘कार्यकाल ट्रैक’ के आधार पर होगी अर्थात अगली उत्कृष्टता तक उपयुक्त प्रोबोशन के आधार पर नियुक्तियां की जाएंगे. कार्य प्रदर्शन के मूल्यांकन के पैमाने, स्थाई नियुक्ति, पदोन्नति, वेतन बढ़ोत्तरी से जुडी हुए मामले एकपक्षीय तौर पर इसी बीओजी के द्वारा ही तय होंगे (13.6) अध्यापकों के गरिमा के मामले में कितना कुछ किया जा रहा है.

गवर्नेन्स

गवर्नेन्स की और फिर से ध्यान दें तो समझ आता है की सरकारी एचईआई संरचना और इसके तत्वों के रूप में निजी संस्थानों की भांति ही लगेगी. क्या ये अच्छी बात है? निसंदेह यह किसी भी प्रकार के आतंरिक और बाहरी प्रभाव से मुक्त होगी जिससे यह बिना किसी अवरोध के आसानी से काम कर सके. लेकिन विश्वविद्यालयों के मुख्य हितधारक जिनमे,अध्यापक, शोधार्थी और विद्यार्थी जिन्हें इसमें खामोश कर दिया गया है क्या इसे एक डरावनी सूरत नहीं दे रहा है? यह उच्च शिक्षा की कीमत पर, ख़ास कर एक सामन्य पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र द्वारा इसको अफ़ोर्ड कर पाने पर भी प्रश्न उठाता है, तथाकथित एसईडीजी का बात ही भूल जाइए जिसका इस दस्तावेज में बड़ा ज़िक्र है.

यह दस्तावेज इस बात का तो ज़िक्र करती है कि, शिक्षा लोक सेवा है तथा इसका व्यवसायीकरण नहीं होना है और इस बात का वादा करती है एचईआई–निजी हों या सरकारी–नियामक शासन द्वारा एक ही तरह का व्यवहार किया जाएगा. यह दस्तावेज कहीं भी फीस के ढांचे का ज़िक्र नहीं करता सिवाय इस बात के निजी परोपकारी एचईआई को खुद को सशक्त बनाने के लिए कुछ निश्चित जैसे 20 प्रतिशत छात्रों को फ्रीशिप (दस्तावेज के हिंदी अनुवाद में भी फ्रीशिप ही लिखा हुआ है. इसे हम 20 प्रतिशत छात्रों की मुफ्त शिक्षा से जोड़ सकते हैं, ) और 30 प्रतिशत विद्यार्थियों के लिए किसी प्रकार की छात्रवृत्ति का प्रावधान करने जैसे कुछ नियमों के साथ अपने फीस तय करने का अधिकार होगा, (18.14) हालाँकि दस्तावेज यह नहीं कहता की फीस कुछ विदेशियों को छोडकर जो भारत को विश्वगुरु के रूप में देखते हों, को छोड़कर आम विद्यार्थियों के लिए “अफोर्डेबल” होगी अथवा नहीं (12.8). निसंदेह ही अगर सरकार फीस को विदेशी विद्यार्थियों के हिसाब से ही अफोर्डेबल मानती है तो यह भारतीय विद्यार्थियों के लिए प्रासंगिक नहीं रह जाती है. अब चूँकि विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में कार्य करने की छूट दे दी गई है, तो भारतीय विश्वविद्यालयों को उनसे प्रतिस्पर्धा करनी होगी, तो बाज़ार की प्रतिस्पर्धा फीस को तय करेगी ना की सरकार.

Rupak De Chowdhuri/Reuters

असल में यह दस्तावेज उच्च शिक्षा और विद्यालयी शिक्षा दोनों सन्दर्भों में बार बार निजी “परोपकारी” संस्थानों के प्रोत्साहन, उनसे सरकारी संस्थानों को आर्थिक सहायता लेने तथा उनसे भारतीय संस्थानों को उनसे प्रतिसपर्धा करने की बात दोहराती है (8.9). शिक्षा के अधिकार कानून के प्रति अपने दिखावटी प्रेम के बावजूद यह दस्तावेज ‘विद्यालयों के निर्माण सम्बन्धी नियमों को हल्का बनाने’ (3.6) की बात करता है ताकि ‘निजी परोपकारी संस्थानों को’ बढ़ावा मिल सके स्कूल कॉम्प्लेक्सों की बात करते हुए – यह निजी और सरकारी स्कूलों को एक साथ सम्बद्ध करने (7.10) और ‘सरकारी –परोपकारी’ (3.5) साझेदारी की बात करता है. निजी तथा सरकारी दोनों संस्थानों को एक तरह ही ट्रीट करने का विचार स्पष्ट रूप से सरकारी संस्थानों के पक्ष में तो नहीं काम करने वाला है. यह बात बहुत विस्तार से तो इस दस्तावेज में नहीं कही गई है लेकिन शिक्षा से इतर अन्य क्षेत्रों के अनुभवों से यह अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है कि सरकार बहुत चुपके से शिक्षा का क्षेत्र निजी संस्थानों के फायदे के लिए खुला छोड़ने वाली है. यह दस्तावेज कुछ और नहीं बल्कि इस सरकार के मंसूबे को छुपाने की साजिश भर है. यदि वास्तव में ऐसा है तो, अब यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस देश में अनुसूचित जातियों, जनजातियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, महिलाओं और अन्य वंचित तबकों के हितों की लड़ाई लड़ने वाले शिक्षा के अधिकार के लिए चल रहे आन्दोलन अब इस स्थिति में पहुँच गए हैं की अधिकारों के विरोध किये इस दस्तावेज का पुरजोर विरोध किया जाए.


मालिनी भट्टाचार्य अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की अखिल भारतीय अध्यक्ष हैं और भूतपूर्व सांसद भी हैं. वह कोलकाता के जाधवपुर विश्वविद्यालय की प्राध्यापक भी रह चुकी हैं.

Read the English version here: Preliminary Responses on NEP 2020

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