Chhatra SangharshNationalVernacular

कृषि कानूनों को समग्रता में देखें

Farmers take part in the Kisan Mukti March in Delhi | Sajjad Hussain/AFP

इन्द्रजीत सिंह

एक तरफ कोरोना महामारी से जूझते हुए किसान- मजदूर और दूसरी तरफ मोदी सरकार जिस तरह आमने सामने हो गए हैं वह एक अभूतपूर्व स्थिति है। किसानों की भलाई के नाम पर जबरदस्ती तीन ऐसे कानून अध्यादेशों के चोर रास्ते से जारी किए गए जिनकी कभी भी किसान संगठनों ने मांग नहीं की थी । आपदा को अवसर में बदलने के जुमले की आड़ लेकर भाजपा की मोदी सरकार ने एक तरह से जनता के खिलाफ ही युद्ध सा ही छेड़ दिया है। कोरोना की रोकथाम के नाम पर बिना किसी तैयारी के लॉकडाऊन थोपने जैसे फतवों के परिणामस्वरूप रोजी-रोटी और अर्थव्यवस्था को जो गहरे आघात लगे हैं वह लंबे समय तक देश की जनता को झेलने पड़ेेंगे। कोरोना के मोर्चे पर दर्ज हुई दयनीय विफलता की जब चौतरफा आलोचनाएं हो रही थी तभी कृषि से संबंधित तीन अध्यादेशों का फतवा वास्तव में हैरत डालने वाला है। इसी संदर्भ में कोरोना का अधिकतम दंश झेल रहे मजदूरों पर श्रम कानूनों में किए गए मालिकपरस्त बदलावों के रूप में एक बड़ा हमला किया गया है।

गत 5 जून को कृषि संबंधी जो तीन अध्यादेश थोपे गए उन्हें राष्ट्रव्यावी किसान आंदोलन के जबर्दस्त विरोध के बावजूद संसद के दोनों सदनों में पास करवाकर कानून का रूप दे दिया गया है। उल्लेखनीय है कि अल्पमत में होते हुए मोदी सरकार ने जिस तरह 20 सितंबर को संसदीय नियमों व परंपराओं की धज्जियां उड़ाते हुए कृषि संबंधी बिलों को पारित करवा दिया वह संसदीय इतिहास में काले दिवस के रूप में दर्ज रहेगा।

बहरहाल इन खतरनाक बिलों को संसद में पास करवाना तो एक बात है लेकिन किसान संगठनों के व्यापक मंच अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) व अन्य मंचों के तत्वाधान में जो प्रतिरोध की आंधी चली है वह सरकार के लिए एक सशक्त चुनौती बनना लाजमी है।

विद्यार्थियों ने अपने बुलेटिन छात्र संघर्ष में यह लेख छापकर इस आंदोलन के प्रति जो दिलचस्पी और सक्रियता दिखाई है वह निश्चित तौर पर एक सकारात्मक रूझान है। इसलिए इस आलेख के माध्यम से यह कोशिश है कि विद्यार्थी इन कृषि कानूनों के दूरगामी दुश्प्रभावों की जांच पड़ताल अवश्य करें जो उन्हें स्वयं भी गहरे रूप में प्रभावित करेंगे।

इन तीन कानूनों के बारे में संक्षेप में चर्चा करने से पहले हमें यह स्पष्ट होना चाहिये कि कानूनों के जो नाम रखे गए हैं वह पूरी तरह से एक छल-कपट ही है। यहां पर उनके औपचारिक नाम और उसके साथ जो उनके वास्तविक अर्थ हैं वह दिए जा रहे हैं:

1. कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवद्र्धन और सुविधाकरण) विधेयक 20 20।
2. किसान(सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधायक 2020
3. आवश्यक वस्तु विधेयक संशोधन 2020।
वास्तविक अर्थ में जानने के लिए इनको निम्रलिखित रूप में पढ़ा जाना चाहिए:
1. मंडी तोड़ो-एमएसपी छोड़ो कानून
2. बंधक किसान कानून
3. जमाखोरी कालाबाजारी अनुमति कानून

इन कानूनों के बारे में पहले तो समझना जरूरी है कि यह तीनों आपस में जुड़े हुए हैं और इन्हे इकठ्ठे ही देखा जाना चाहिए। दूसरा यह कि इन कानूनों को नवउदारीकरण की नीतियों की संगति में ही देखा जाना जरूरी है। यानि भूमंडलीकरण की वह नीतियां जो तीन दशकों से लागू हैं परंतु पिछले 6 साल के मोदी शासन के दौरान ताबड़तोड़ ढंग़ से थोपी गई हैं। इन नीतियों के परिणामस्वरूप भयंकर विषमताएं और अभूतपूर्व बेरोजगारी पैदा हुई है। जिस कार्पोरेट वर्ग ने महामुनाफे कमाए हैं वह अब अपने सर्वप्रिय नेता प्रधानमंत्री मोदी से कृषि क्षेत्र को भी पूरी तरह से अपने लिए खुलवा रहा है। ठीक वैसे ही जैसे शिक्षा क्षेत्र को भी कार्पोरेट के हाथों में सौंपा जा रहा है।ठीक उसी तरह जैसे कार्पोरेट के हाथों बैंकों में जमा जनता का धन लुटवाया गया है, बेशकीमती राष्ट्रीय परिसंपत्तियों को बेचा गया है और श्रम कानूनों को बदलकर मजदूरों के निर्बाध शोषण की जो भी थोड़ी बहुत बाधाएं थी उन्हें भी भी हटाया जा रहा है।

कृषि संबंधी तीन कानूनों के संबंध में यह स्पष्ट है कि इनसे केवल किसान और ग्रामीण जनता ही प्रभावित नहीं होगी बल्कि इनके बहुत दूरगामी प्रभाव होंगे। देश की खाद्य सुरक्षा चौपट हो जाएगी जिसे करोड़ों किसान-खेतमजदूरों ने कठोर मेहनत से हासिल किया था। इसलिए भाजपा के लोग, उनके सर्वोच्च नेता और अचानक टी वी पर प्रकट हुए कथित कृषि विशेषज्ञ दिन रात जो झूठा प्रचार कर रहे हैं उसके मुकाबले सचाई जनता के सामने जानी जरूरी है। आईये एक एक करके इन कानूनों की जांच परख करें।

जो पहला कानून है उसके तहत निजी पूंजीपतियों या बड़े व्यापारियों या कंपनियों को अनाज मंडियों के बाहर बिना रोक टोक कृषि उत्पादों का व्यापार करने की छूट दी गई है। इससे वही स्थिति पुन: लौट आएगी जो मार्किट कमेटियों की व्यवस्था किये जाने से पहले थी। चूंकि मंडियों के बाहर टैक्सों व फीस से पूरी छूट मिलेगी इसलिए प्राईवेट कम्पनी कुछ समय के लिए किसानों को मंडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य से कुछ ज्यादा देकर भी मुनाफे में रहेंगे। कुछ समय बाद सारा व्यापार मंडियों से बाहर होने लगेगा और मंडी व्यवस्था चौपट हो जाएगी। फिर किसानों के पास कोई विकल्प नहीं बचेगा तो कम्पनी उसके उत्पाद के मनमर्जी के भाव लगाएगी।

बड़े पैमाने पर ठेका खेती का जो दूसरे नंबर पर कानून पास किया गया है उसका नाम भी झांसे में डालने वाला है। भाव गारंटी इकरार के नाम से बनाए गए इस कानून के अंतर्गत जो प्रावधान किसान के लिए दर्शाए गए हैं वह केवल मात्र छलावा और दिखावे के लिए हैं। व्यापारी व किसान के बीच हुए लिखित करार से मुकरने की सूरत में किसान किसी न्यायालय के समक्ष नहीं जा सकते। विगत में पेपसिको कम्पनी ने जो पंजाब के किसानों के साथ किया वे कड़वे तजुर्बे सबके सामने हैं कि आलू व टमाटर की कैसे लूट की गई थी।
तीसरे कानून की खास विशेषता यह है कि इसका शीर्षक बनाने में कोई झूठा दिखावा नहीं किया गया। आवश्यक वस्तु अधिनियम -1955 के तहत अनाज, सब्जी, फल, तेल इत्यादि ऐसे पदार्थ हैं जिनके एक निश्चित सीमा से ज्यादा जमाखोरी करना एक दंडनीय अपराध था। अब उसमें संशोधन करके जमाखोरी की छूट दे दी गई है। यानि असीमित मात्रा में खरीदकर गोदामों में जमा करके आवश्यक वस्तुओं की कृत्रिम कमी पैदा करेक बढ़े भावों में बेचकर कालाबाजारी(ब्लेक मार्किटिंग) की सरकारी अनुमति प्रदान की गई है।

इस प्रकार कृृषि संबंधी कानून उत्पादक व उपभोक्ता दोनों के लिए घातक सिद्ध होंगे। इसीलिए गत महीनों के दौरान लोग समझ गए हैं कि यह उनके साथ एक बड़ी साजिश रची गई है। 25 सितम्बर के सफल भारत बंद ने इसे साबित कर दिया है कि किसी भी सूरत में इन कानूनों को लागू नहीं होने दिया जाएगा जोकि जनविरोधी तो हैं ही साथ में असंवैधानिक और निरंकुश भी हैं।

हरियाणा व पंजाब में इन काले कानूनों का सबसे तीव्र विरोध होने का एक मुख्य कारण यह भी है कि यहां पर मार्किट कमेटी की स्थापना 1939 में ही हो गई थी। 1960 के बाद जिसे हरित क्रांति कहते हैं उस दौरान विस्तार करते हुए जो व्यापक ढ़ांचा विकसित किया गया उससे कृषि क्षेत्र में पूंजीवाद का प्रवेश तो अवश्य हुआ पर यह भी एक तथ्य है कि छोटे किसानों की क्षमता भी अतिरिक्त उत्पादन की हुई और वे भी मंडी के साथ जुड़ गए। अलबत्ता हरित क्रांति के गुण-दोषों की अलग से चर्चा की जा सकती है।

इस संदर्भ में यह रेखांकित किया जाना जरूरी है कि लंबे अरसे से हमारा कृषि क्षेत्र गहरे संकट से गुजर रहा है और इसके लिए भिन्न-भिन्न सरकारों की नीतियां जिम्मेवार रही हैं। इसका एक प्रमुख कारक यह है कि खेती की लागत निरंतर बढ़ती रही और उसके अनुरूप आय में वृद्धि नहीं हुई। नतीजतन कर्जदार किसानों द्वारा आत्महत्याएं करने की संख्या बढऩे की विभिषिका के बावजूद शासन अत्यंत संवेदनहीन बना रहा। इस परिस्थिति में कर्जा मुक्ति और स्वामिनाथन कमिशन की सिफारिशों के अनुसार लागत से डेढ ग़ुणा भाव सुनिश्चित करने की मांगों और भूमि अधिग्रहण के प्रतिगामी कानूनों के खिलाफ 200 से ज्यादा किसान-खेतमजदूर संगठनों के राष्ट्रीय मंच का गठन हुआ। मध्य प्रदेश के मंदसौर में पुलिस फायरिंग में शहीद हुए 6 किसानों के कुख्यात प्रकरण के खिलाफ अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के तत्वाधान में किसान आंदोलनों ने जोर पकड़ा। इसी सिलसिले में 30 नवम्बर, 2018 को जंतर-मंतर पर आयोजित ‘किसान संसद’ में दो बिल पारित किए गए जिन्हें 19 राजनैतिक दलों ने समर्थन दिया। वे दोनों बिल लोकसभा व राज्य सभा में विधिवत तौर पर दाखिल करके कृषि संकट पर चर्चा के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने की मांग की गई। उस पर विचार करने की बजाए कोरोना का फायदा उठाते हुए उपरोक्त तीन किसान विरोधी अध्यादेश थोप दिए गए।
इस पृष्ठभूमि में जो आंदोलन देशभर में फैला है, दिन प्रतिदिन उसका विस्तार हो रहा है। एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में देश की सभी दस प्रमुख ट्रेड यूनियनों ने किसान संघर्ष समन्वय समिति के साथ आगामी 26-27 नवम्बर को दिल्ली घेरने के आह्वान में शामिल होने की घोषणा की है।

स्थिति यह बन गई है कि कारपोरेट के एजेंडा को लागू करने के मामले में मोदी सरकार देश के मेहनतकशों की जीवन रेखा को काटने पर अड़ गई है । किसान-मजदूरों का भी संकल्प है कि यदि सरकार ने कदम पीछे नहीं हटाए तो वे भी उसकी राजनीतिक जीवन रेखा को काटने का काम करेगी।

आर्थिक के अलावा जनजीवन के तमाम क्षेत्रों में चाहे वह सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनीति का क्षेत्र हो पिछले 6 सालों के दौरान मोदी सरकार व भाजपा की राज्य सरकारों ने तमाम जनपक्षीय व बेहतर संस्थानों व मूल्यों को निशाने पर लेकर छिन्न-भिन्न किया है। शिक्षा व संस्कृति की रगों में प्रतिक्रियावाद, अंधविश्वास और साम्प्रदायिकता का जहर उतारा जा रहा है। बोलने व असहमति प्रकट करने के अधिकार व नागरिक स्वतंत्रताओं को छीना जा रहा है। संविधान विरोधी सी ए ए /एन आर सी जैसे कानूनों के विरुद्ध ऐतिहासिक संघर्ष चलाने वालों पर देशद्रोह व यू ए पी ए जैसे काले कानून लगाकर उन्हें जेलों में डाला गया है। इनमें जे एन यू व जामिया मिलिया के सक्रिय छात्र -छात्राएं शामिल हैं। विश्वविद्यालयों के जाने माने प्राध्यापकों, लेखकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वामपंथी दलों के शीर्ष नेताओं तक को दंगे फैलाने के आरोपों में लपेटने की दुस्साहसपूर्ण साजिशों का खुलासा हुआ है।

उपरोक्त परिदृश्य को समग्र रूप में देखा जाना जरूरी है। रोजी-रोटी की सुरक्षा की इस लड़ाई के सूत्र सामाजिक आंदोलन के साथ इसलिए भी जुड़े हैं कि साम्प्रदायिकता , बहुसंख्यकवाद और जातिवादी व लिंग उत्पीड़न की मनुवादी ताकतें सत्ता के संरक्षण में और भी हिंसक होकर सामने आ गई हैं । जनवादी अधिकारों, नागरिक स्वतंत्रताओं और सामाजिक सद्भाव की रक्षा करने के सवाल भी अनिवार्य रूप से इस लड़ाई के साथ जुड़े हुए हैं। इस संदर्भ में तथाकथित नई शिक्षा नीति भी असल में शिक्षा प्राप्त करने के सार्वभौमिक अधिकार को छीन कर बहुमत जनता को शिक्षा से वंचित करने का ही षडय़ंत्र है। इस प्रकार शिक्षा व रोजगार के लिए जारी संघर्ष को एक तरह से किसान-मजदूरों के संघर्षों के साथ जोडक़र ही मौजुदा तानाशाही निजाम से छुटकारा प्राप्त हो सकता है । इस संघर्ष में वैकल्पिक नीतियों के एक प्रारूप के निर्माण का जो पक्ष है उसे परवान चढ़ाने का लक्ष्य सामने रखकर चलना होगा।


Follow us for regular updates:
Telegram
t.me/studentstrugglein
Facebook
https://www.facebook.com/studentstrugglemonthly
WhatsApp
https://chat.whatsapp.com/BvEXdIEy1sqIP0YujRhbDR