लड़ो या मरो
दिनित दैन्टा
“भारत और सिस्टम” या “स्वास्थ्य सिस्टम और हमारा मुल्क भारत” या “सिस्टम”
इनमे से कोई एक शीर्षक इस लेख का उपयुक्त शीर्षक हो सकता था पर हमें ऐसा नही लगा क्यों नहीं लगा ये आप आगे पढ़िएगा । मुख्यतः इस लेख में हम ‘सिस्टम’ पर ही बात करेंगे परंतु वर्तमान राजनीतिक परिपेक्ष को समझे बिना या “सिस्टम” को राजनीति से अलग समझना या समझाना कतई सही नहीं रहेगा । क्योंकि राजनीति के ‘सिस्टम’ को समझना है तो ‘सिस्टम’ की राजनीति को भी समझना तो पड़ेगा। यह काम हम अकेले तो कर नहीं पाएंगे आप लोग भी कोशिश कीजिए सोचिए औऱ समझिए कि क्या है “सिस्टम”?
“सिस्टम” वैसे तो अंग्रेजी भाषा का शब्द है इसकी उतपत्ति 17 वी शताब्दी के शुरू में हुई थी। इस शब्द का हिंदी में मतलब होता है तंत्र, व्यवस्था,प्रणाली इत्यादि । सिस्टम शब्द की अनेक परिभाषाएं है । अंग्रेजी का शब्द होने के बावजूद इस शब्द नें हर हिंदुस्तानी की जुबान पर अपनी जगह पक्की की है। क्योंकि यहां हर कोई सिस्टम की मार अपने तरीके से झेल रहा है । हर हिंदुस्तानी की जुबान से होते यह शब्द जब हमारे हुक्मरानों तक पहुंचता है तो इसके मायने बदल जाते हैं या यूं कहें कि कोई मायने ही नहीं रहते । हुक्मरानों के लिए वही सिस्टम होता है जो हुक्म उनके आका उन्हें देते हैं औऱ कुछ हुक्मरान तो खुद को ही ‘सिस्टम’ समझ लेते हैं । वर्तमान भाजपा सरकार का तानाशाही रवैया और सरकार के कार्य और करतूतों को देखकर तो आप लोगो को भी अंदाजा हो ही गया होंगा की हमारे देश में बरसों का बनाया हुआ लोकतांत्रिक ‘सिस्टम’ महज सात सालों में कैसे एक फासीवादी सिस्टम में बदलने जा रहा है। अब हमारे सिस्टम के फैसले जनतंत्र नहीं लेता बल्कि नागपुर में बैठे कुछ अल्पबुद्धि लोग लेते हैं। उनसे जो कसर रह जाती है वो देश के गिने चुने अम्बानी, अडानी जैसे धनासेठ अपनी तिजोरी भरने के लिये व सभी सार्वजनिक व प्राकृतिक ससांधनों पर कब्जा करने के लिए सरकार के माध्यम से कानून बना कर पूरा कर लेतें है। उदहारण के तौर पर तीन कृषि कानूनों को ही ले लीजिए जिसके माध्यम से कृषि और कृषि व्यापार पर पूंजीपतियों के कब्जे की तैयारी है।
वैसे सिस्टम शब्द की परिभाषाएं अनेक है परंतु हमारे दिमाग मे सिस्टम शब्द सुनकर पहली तस्वीर सरकार या उसे जुड़े तन्त्र की आती है । फिर याद आता है वो वाक्य जो बार बार हमें हुक्मरानों और उनके तंत्र द्वारा याद दिलाया जाता है कि कोई भी ‘सिस्टम’ उत्तम नहीं होता उसे उत्तम बनाना होता है और किसी भी देश का ‘सिस्टम’ वहां के नागरिकों से बेहतर बनता है। हम भी जोश में आ जाते हैं कि सही बात है हर बात का जवाब सरकार नहीं दे सकती कुछ सवाल हमे अपने आप से भी पूछने चाहिए कि हम क्या कर रहें हैं ।आजकल का गोदी मीडिया तन्त्र इस बात पर बहुत जोर देता है कि सरकार से सवाल पूछने के बजाए अपने आप से पूछिए। उससे सन्तुष्टि न मिले तो विपक्ष से पूछ लीजिए पर सरकार से, न बाबा न हालांकि वो आपको ललकारते है कि दम है तो पूछकर बताइये सवाल,आपको देशद्रोही साबित नहीं कर दिए तो बताना। किसी भी देश के सिस्टम को समझना हैं तो वहां के राजनीतिक परिपेक्ष समझे बगैर नहीं समझा जा सकता । हम अपने कॉलेज के शुरुआती दिनों में बहुत से छात्र नेताओं की इस बात से बहुत अधिक प्रभावित हुए थे कि राजनीति ही हमारा भविष्य तय करती हैं इसलिए हमें अपनी राजनीति खुद तय करनी है। राजनीति के बगैर हमारा सिस्टम नही चलता या यूं कहिए कि राजनीति और सिस्टम आज एक दूसरे के प्रायवाची शब्द बन चुके है। हमारे मौजूदा ‘सिस्टम’ में दो सोच के लोग रहते हैं एक जो सोचते हैं कि जो चला है चलने दो बस अपना काम करो दूसरे वो जो गलत को गलत कहने की हिम्मत करते हैं, सिस्टम से सवाल पूछते हैं , सिस्टम को चुनौती पेश करते हैं जैसे कि दिल्ली के बॉर्डरो पर छः महीने से ज्यादा समय से डटे किसान जो केंद्र सरकार और उसके सिस्टम को आंखों में आंखे डाल ललकार रहे हैं । नताशा नरवाल जैसे राजनैतिक कैदी समाज के लिए बोलने की सजा देश की अलग -अलग जेलों में भुगत रहे हैं। इन्ही लोगों में शामिल हैं शाहीन बाग की दादियों,व जामिया की लड़कियों समेत देश का वो छात्र व नौजवान समुदाय जो इस सिस्टम को इसी की भाषा मे समय-समय पर चुनौतियाँ पेश करता है।
आप शायद समझ ही गये होंगे कि हम ‘सिस्टम’ की इतनी चीर-फाड़ क्यों कर रहे हैं यदि नहीं समझे है तो समझिए कि ये ‘सिस्टम’ ही तो है जो अस्पतालों और घरों में लाखों लोगों को इसलिए मार देता है क्योंकि इस सिस्टम के पास हमारे लिए ऑक्सीजन,वेंटिलेटर,और कोरोना से लड़ने के लिए जरूरी दवाइयां नहीं थी । क्यों नहीं थी अगर ये सवाल आपके जहन में आ रहा है तो जवाब भी सुनिए। जवाब है ‘सिस्टम’ जी। क्यों ? क्योंकि जब आप सब एक अच्छे नागरिक बनने के बदले में सवाल पूछना भूल गए थे, कि जब कोरोना की दूसरी लहर की चेतावनी दे दी गयी थी, जब पहली लहर और दूसरी लहर के बीच एक साल का वक्त मिल गया था तो इस सिस्टम को चलाने वाली सरकार ने तैयारियां क्यों नही की , क्यों हमारे हिस्से की वैक्सीन विदेशो में भेज दी गयी, क्यों नही स्वास्थ्य सुविधाओं का ‘सिस्टम’ मजबूत किया गया आखिर कौन जिम्मेवार है, इतने लोगो के नरसंहार का। क्या सिस्टम लेंगा जिम्मेवारी नहीं कभी नहीं क्योंकि सिस्टम तो अभी मौत के आंकड़ों को छुपाने में लगा है। क्योंकि यदि असली आंकड़े बाहर आ गए तो इस सिस्टम पर लोगो का भरोसा (अगर अभी भी किसी का बचा हुआ है तो) नहीं रहेंगा और इस सरकार का असली फासीवादी चेहरा बेनकाब हो जाएगा।
यहां ये बात भी जरूर जान ले कि हम सिस्टम से भले ही अपने आप को अलग कर दे परंतु सिस्टम हमे अपने से अलग नहीं करता ।ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि गरीब की जान तो हमेशा से आंकड़ा ही थी। इस विश्व गुरु देश मे परन्तु जिन लोगो के पास पैसा है, जो ये सोचते थे कि सरकारी अस्पताल के बंद होने या खंडर बनने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वो पैसे दे कर निजी अस्पतालों में इलाज खरीद लेंगे पर ‘सिस्टम’ पर कुछ नहीं बोलेंगे उन लोगो को भी ऑक्सीजन नहीं मिल पाई। ऑक्सीजन देना सिस्टम का काम था परंतु सिस्टम कहां से ऑक्सीजन देता वो तो खुद वेंटिलेटर पर लेटा था क्योंकि उसको हमने नहीं सरकारों ने घायल किया हुआ था। उन ही सरकारों ने जिन्हें बहुमत देने के बाद हम उम्मीद की निगाहों से देख रहे थे । हमारी आंखों में इतनी उम्मीद भर दी गयी कि हम ‘सिस्टम’ का कत्ल होते हुए देख ही नहीं पाए या हमने देखना ही नहीं चाहा । यदि इतना कुछ होने पर भी आपको ‘सिस्टम’ सही लग रहा है या आप के जहन में कोई सवाल सिस्टम/सरकार के प्रति नहीं है या आप अभी भी सरकार के साथ मिल कर ‘पॉजिटिव अनलिमिटेड’ सोच रहे हैं तो हमारा यकीन मानिए
अपना सिस्टम मतलब बॉडी सिस्टम चैक करवा लीजिए। हम सच कह रहे हैं कि ये सब तभी सम्भव है अगर आपके अंदर की मानवीय संवेदनाओं का भी कत्ल हो चुका है और आप सही और गलत का फर्क भूल चुके हैं ।
भारत सहित दुनिया के तमाम देश कोरोना महामारी से जुझ रहे हैं। भारत में इस महामारी ने न केवल भाजपा सरकार के निर्दयी, दिवालिया और ह्र्दयहीन चेहरे को बेनकाब किया बल्कि स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के जजर्र ‘सिस्टम’ को भी बेनकाब किया है। किसी ने अंग्रेजी भाषा में कहा कि ‘The coronavirus did not break the system. It just exposed the broken system.’ अर्थात कोरोना वायरस ने ‘सिस्टम’ को नहीं तोड़ा। इसने सिर्फ टूटे हुए या यूं कहिए कि खोखले सिस्टम को बेनकाब किया। इस महामारी ने मनुष्य रूपी प्राणी को सोचने पर मजबूर कर दिया कि आने वाले वक्त में हमें किस रास्ते पर चलकर भविष्य का निर्माण करना है। इस महामारी ने मनुष्य को भविष्य के दो रास्तों पर ला कर खड़ा कर दिया है। एक रास्ता जो हमारी सरकारों द्वारा बनाया गया विकास का रास्ता है जो केवल चंद पूंजीपतियों को मुनाफा व उन्हें तमाम संसाधन प्रदान करता है । इस रास्ते पर ही हिंदुस्तान की सरकारें काम करती रही है । जिसका उदहारण ऑक्सफेम संस्था द्वारा हाल में किये गये सर्वे के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं । ऑक्सफेम संस्था ने भारत को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है। जिसके अनुसार कोरोना महामारी के लॉकडाउन के दौर में भारत के पूंजीपतियों व अमीरों की धन दौलत सम्पदा लगभग 35 प्रतिशत तक बढ़ गयी है। यह तब हुआ है जब भारत के 24 प्रतिशत लोगों की मासिक आय केवल तीन हज़ार रुपये मासिक से भी कम है। देश के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अम्बानी ने इस दौर में प्रति घन्टा 90 करोड़ रुपये की आय अर्जित की है। कोरोना काल में अर्जित इस आय से अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत देश के 40 करोड़ मजदूरों को पांच महीने तक गरीबी की मार से बचाया जा सकता है। ऑक्सफेम की “इनइक्वेलिटी वायरस रिपोर्ट” के अनुसार देश के सबसे अमीर सौ खरबपतियों की आय मार्च 2020 से कोरोना महामारी के दौरान इतनी ज्यादा बढ़ी है कि देश के सबसे गरीब 13 करोड़ 80 लाख व्यक्तियों में इस बढ़ी हुई आय को बांट दिया जाए तो उन सबको 94 हज़ार रूपए की आर्थिक मदद दी जा सकती है। याद रखें कि कोरोना महामारी की पहली लहर में मार्च से मई 2020 के बीच लगभग 12 करोड़ 60 लाख मजदूरों की नौकरियां चली गयी थीं जिसमें कई महीनों बाद दोबारा से कड़ी मशक्कत के बाद मजदूर दोबारा से रोज़गार हासिल करने में सफल हो ही रहे थे कि तभी दोबारा से कोरोना की दूसरी लहर ने मजदूरों का रोज़गार छीनना शुरू कर दिया। कोरोना की दूसरी लहर में भी अप्रैल 2021 तक लगभग एक करोड़ मजदूरों को नौकरी से वंचित होना पड़ा है। इस तरह यह आंकड़ा उतना ही बैठता है जितना कि ऑक्सफेम अपनी रिपोर्ट में ज़िक्र करता है कि देश के सौ खरबपतियों द्वारा कोरोना लोकडाउन में कमाई गयी धन दौलत सम्पदा से 13 करोड़ 80 लाख सबसे गरीबों को लगभग एक लाख रुपये की आर्थिक मदद उपलब्ध करवाई जा सकती है। इस रिपोर्ट ने इस बात का भी ज़िक्र किया है कि लॉकडाउन के दौरान ग्यारह सबसे अमीर खरबपतियों द्वारा जो सम्पत्ति अर्जित की गई है,उस से अगले दस साल तक मनरेगा व स्वास्थ्य सुविधाओं का खर्चा चलाया जा सकता है व करोड़ों लोगों को रोज़गार दिया जा सकता है। यह तस्वीर काफी कुछ कहती है। इस से साफ हो जाता है कि कोरोना महामारी की लॉक डाउन की आपदा भी देश के अमीरों के लिए बेहतरीन अवसर साबित हुई है। यहां हमे यह भी समझने की आवश्यकता है कि यह सब तब घटित हो रहा था जब भारत के तथाकथित यशस्वी प्रधानसेवक नरेंद्र दामोदर दास मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की अनदेखी, गैर वैज्ञानिक सोच और चुनावों का भूत सर पर सवार होने के चलते नतीजा स्वरूप हिंदुस्तान के इतिहास का सबसे बड़ा व भयानक नरसंहार सामने आया। इस सब के बीच एक एक सांस के लिए तड़पता हुआ भारत देखा गया इस लड़ाई में हर किसी ने किसी अपने को खोया । भारत की जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था ने भी इस बीच कई बार दम तोड़ा । इस महामारी के दौर में सरकारें अगर वैज्ञानिक आधार पर काम करती व अपने नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं वक्त पर प्रदान करा लेती तो निश्चित तौर से कई परिवारों की उम्मीदें व चिराग बुझने से बच जाते न ही हमे इन मत्यु को नरसंहार का नाम देना पड़ता ,खैर सोचियेगा …
आपको महामारी द्वारा दिखाए दूसरे रास्ते पर चलकर बनने वाले सिस्टम को दिखाने की कोशिश करते हैं । इस महामारी ने भविष्य का दूसरा रास्ता भी दिखाया है ये वो सिस्टम है जिसकी बात वर्त्तमान सिस्टम को चुनौती पेश करने वाले लोग करते हैं। एक ऐसा सिस्टम जहां चंद धन्नासेठों का राज नहीं होंगा, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मूलभूत विषयो के अभाव में कोई नागरिक नहीं तड़पेगा, जहां झूठ, पाखंड व फासीवादियों का जुल्म नहीं सहना होंगा। जहां जात और धर्म से ऊपर उठकर हर इंसान की पहली और आखिरी पहचान केवल इंसानियत ही होंगी। एक ऐसा सिस्टम जहां मानवीय मूल्यों का मोल सबसे अनमोल होंगा। क्या सोच रहे हैं आप ? यही की क्या ऐसा सिस्टम कभी संभव है । जवाब है हां , ऐसा सिस्टम संभव है बशर्ते अगर हम चाहेंगे तो , पर केवल चाहने से नहीं होंगा न । हमे एकजुट होना होंगा व लड़ना होंगा और तब तक लड़ना होंगा जब तक समाज में शोषण, ग़रीबी,लाचारी,गैरबराबरी, बूखमरी, खत्म नहीं हो जाती।
आपको इस लेख के पहले पहरे की पहली लाइन याद है ना ? उम्मीद है अब तक आप समझ भी गए होंगे कि ‘सिस्टम’ पर ही पूरा लेख लिख डाला परंतु ‘सिस्टम’ शब्द को इस लेख का शीर्षक क्यों नहीं रखा । क्योंकि हमारा स्पष्ट तौर पर यह मानना है कि, हमारा क्या ‘सिस्टम’ को झेल रहे हर व्यक्ति का ,दर्द में तड़प रहे भारत का यही मानना है कि ‘सिस्टम’ तो अब चंद लोगो का गुलाम हो चुका है । इस सिस्टम को शरेआम भरे बाजार में बिना बोली लगाए चंद लोग हथिया चुके हैं । ये मान लीजिए की ये सिस्टम ही तो है जो इस तरह 1% लोगो को 99% लोगो पर राज करने की बेलगाम छूट देता है। ये सिस्टम जीवित तो है पर केवल 1% लोगो को फायदा व सुख सुविधाएं पहुचाने के लिए 99% लोगो का सिस्टम तो मर गया। क्योंकि एक देश का सिस्टम यदि जिंदा होता तो अपने नागरिकों का कत्ल ऐसे नहीं होने देता ,नहीं होता ऐसा भीषण नरसंहार । सिस्टम होता तो किसी न किसी की जवाबदेही जरूर तय होती । सिस्टम होता तो सांसो का व्यापार नहीं होने देता,नहीं है यहां कोई सिस्टम नहीं है । मर चुका है हमारा सिस्टम,मारा जा चुका है हमारे सिस्टम को,किसी भी मुल्क का सिस्टम कभी भी अकेले नहीं मरता उसके साथ मरती है उस समाज की मानवीय सवेंदनाए, उस समाज का नागरिक जो अपने नागरिक होने का फर्ज भूल जाता है , हमारे मुल्क में सिस्टम के साथ मरा है वर्षो की लड़ाई से अर्जित किया हुआ इस देश का गणतंत्र। अभी बहुत कुछ मरना बाकी है । इसलिए मरे हुए सिस्टम के नाम पर लेख का शीर्षक रखना उचित नही था । हमने आपको बताने की कोशिश की कैसे एक भारत में दो भारत रहते हैं एक चमकता हुआ चंद धनासेठो का भारत एक ऑक्सीजन के लिए तड़पता हुआ भारत । ये देश की आजादी के लिए शहीद हुए शहीदों के सपनों का भारत नहीं है ये संविधान द्वारा तैयार किया गया लोकतांत्रिक भारत नहीं है । यह वर्तमान का भारत है जिसके लिए उसके नागरिकों की कीमत एक नम्बर से ज्यादा कुछ नहीं।
ऊपर लिखी गयी बातें पढ़ कर आप ये न सोचें कि इस इंसान के अंदर इतनी निराशा क्यों है क्यों सिस्टम के खिलाफ इतनी नकारात्मक बातें लिखी है । ये हमारे अंदर की नकारत्मक सोच नहीं है, सच है औऱ सच को हमेशा सच ही लिखा जाना चाहिए कुछ कम या ज्यादा नहीं।भारत को विश्व गुरु बनने का सपना देखना छोड़ कर अब आप क्या करेंगे ?
तो अब अंत मे आते हैं अपने इस लेख के शीर्षक पर ‘लड़ो या मरो’ क्या अभिप्राय है इस शीर्षक का ? जरा सोचिए । उम्मीद है कि इस लेख को पढ़ते वक्त आप सोच लिए होंगे इस शीर्षक का अभिप्राय केवल इतना है यदि आप नहीं चाहते कि भविष्य में आपके बच्चों व रिश्तेदारो या करीबीयों को आपके इलाज से लेकर आपके श्मशान या कब्रिस्तान में अंतिम रस्म के लिए लाइनों में लगना पड़े और फिर भी नम्बर न आये , आपके किसी करीबी की मौत केवल इसलिए हो जाए कि उसे प्राथमिक इलाज देने वाला ‘सिस्टम’ पहले से ही मर चुका हो , सिस्टम के मुँह पर करारा तमाचा मारती हुई लाशें गंगा में न तैरती रहे , और उन लाशों को देखकर आप असहाय हो कर ये न सोचें कि इनमें से यदि कोई लाश उठ खड़ी हो जाए और ये न पूछे कि मेरे हिस्से की लकड़ी या जमीन कहाँ है,कहाँ है मेरे हिस्से का इलाज ये सवाल जब लाश पूछ रही होंगी तो सिस्टम जवाब के रूप में किसी बड़ी सी सामूहिक कब्र में लाशों को नदी से निकाल कर उस पर बड़ी बेशर्मी से मिट्टी डाल रहा होंगा । तब आप ,हम और मैं जरूर सोच रहे होंगे कि क्यों नहीं लड़ा ये जब जिंदा था ,क्यों नहीं इस सिस्टम को बदलने की कोशिश की , क्यों हुक्मरानों के हर फ़ैसले को जात ,धर्म से ऊपर उठकर नहीं देख सका , फिर उस मुर्दे को खुद के सवालों का जवाब खुद ही देना पड़ेगा क्योंकि सिस्टम तो जिंदा इंसान की नही सुनता मुर्दो की तो क्या सुनेगा । फिर जवाब शायद यही होंगा लड़ गया होता तो शायद बच गया होता।
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