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आज का परिदृश्य और डॉ बी आर अम्बेडकर की प्रासंगिकता

बादल सरोज

2020 को कोरोना आपदा के लॉकडाउन में पड़े बाबा साहब की जयन्ती का दिन –  एसएफआई ने बहुत प्रभावशाली तरीके से मनाया। स्वाभाविक भी था – क्योंकि डॉ अम्बेडकर का जन्मदिन ज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है। कुछ लोग इसे समानता दिवस के रूप में भी मनाते हैं। ये दोनों रूप – ज्ञान और समानता – सीधे उस मकसद से जुड़े हैं जिनके लिए स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया अपने स्थापना के समय से संघर्षरत रही है। इस दौर में भी आमतौर से भारत के छात्र-छात्राये और खासतौर से एसएफआई लड़ाई की अगली कतार में है। बहुत फख्र होता है जेएनयू, जामिया, हैदराबाद, एएमयू  और टिस से लेकर जादवपुर से राजस्थान सहित जगह जगह के साथियों और मित्रों के निडर संघर्षों को देखकर खासकर इसलिए कि इनसे  खुद को  पूरी दुनिया का नियंता और निर्माता मांनने वाले स्वयंभू ब्रह्मा भी डरते हैं। इन विश्वविद्यालयों के नाम सुनते ही उनकी नींद उड़ जाती है।  अपनी कुटिल साजिशों के सारे बघनखे खोलकर – अपने सारे मीडिया श्वानो को साथ लेकर वे इनके शिकार पर निकल पड़ते हैं – और हर बार हार कर लौट आते हैं। अँधेरे के सौदागरों को इसी तरह हराते रहिये – ज्ञान की मशाल इसी तरीके से जलाते रहिये। जागते रहिये – जगाते रहिये।  

बहरहाल यहां मुद्दा एक ऐसी शख्सियत  है जिनके बारे में बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि यदि वे नहीं होते तो हम जम्बूद्वीपे भारतखंडे में रहने वाले भारतवासियों की हालत वैसी नहीं होती जैसी आज है और यह भी कि जैसी ठीक तरह से नहीं बन पायी वह भी तभी बन पाएगी जब एक व्यक्तित्व और एक विचार के रूप में बाबा साहब हमारे झंडे पर होंगे।  इस लिहाज से उनके उस गुणात्मक योगदान को रेखांकित करना जरूरी हो जाता है जिसे सामने न आने की हजार कोशिशें हजारहां की जाती रही हैं।  हम इस संक्षिप्त टिप्पणी डॉ बी आर अम्बेडकर को बाबा साहेब के नाम से ही पुकारेंगे – उन्हें यह संबोधन  उनके ख़ास सहयोगी और कामरेड आर बी मोरे ने दिया था।  कामरेड मोरे ने अपने जीवन वृतांत में लिखा है किस तरह वे बाबा साहेब के कहने और उनकी सहमति लेने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए थे और बाद में सीपीएम के बड़े नेता और विधायक भी बने थे। 

बाबा साहेब भारतीय समाज के वे पहले व्यक्ति और विचारक हैं जिन्होंने सदियों पुरानी पहेली – जाति की पहेली – को सबसे तार्किक और वैज्ञानिक तरीके से समझा, उसकी जड़ें ढूंढ़ी, व्याख्या की और इसी के साथ  उससे मुक्ति पाने के रास्ते ढूंढें भी और उन पर चले भी।   बाबा साहेब को जातियों के प्रतिशत की गणना के कैलकुलेटर, ईवीएम मशीन के बटन और पद-प्रसिद्दि पाने के एटीएम कार्ड में बदल कर रखने वालों ने उनका एक नया रूप बनाने की कोशिश की।  मगर वे इतने विशालकाय हैं कि उन्हें ऐसे किसी भी सांचे में उन्हें नहीं बांधा जा सकता। 

बाबा साहेब का अनोखा योगदान यह है कि उन्होंने जाति और वर्ण के द्वैत की अद्वैतता – इनके रूप में अलग अलग  होने और उसी के साथ सार में  एक सा होने – को समझा और दोनों ही तरह के शोषण के खिलाफ लड़ाई को ही सामाजिक मुक्ति की गारंटी माना। अपनी पहली राजनीतिक पार्टी – इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी, – जिसका झंडा लाल था, के घोषणापत्र में उन्होंने साफ़ साफ शब्दों में कहा था कि “भारतीय जनता की बेडिय़ों को तोडऩे का काम तभी संभव होगा जब आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह की असमानता और गुलामी के खिलाफ एक साथ लड़ा जाये।”   एक फेबियन होने के नाते भले वे वर्ग की क्लासिकल आधुनिक परिभाषा की संगति में नहीं थे – मगर भारतीय समाज के मामले में उन्होंने वर्ण और वर्ग की पारस्परिक पूरकता – ओवरलेपिंग समझी थी।   यही वजह है कि महाड़ के सत्याग्रह, चावदार तालाब के पानी की लड़ाई लड़ने के साथ, मनु की किताब जलाने और गांधी जी से तीखी बहस करने के बीच वे ट्रेड यूनियन बनाने और मजदूरों की लड़ाई लड़ने का भी समय निकाल लेते थे।  

हाल ही बाबा साहेब बहुत शिद्दत से याद आये जब ये खबर पढ़ी कि मोदी सरकार ने काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 करने के लिए फैक्ट्रीज एक्ट की धारा 51 में संशोधन करने का फैसला ले लिया है।  यह वही क़ानून है जिसे वायसरॉय की कौंसिल के लेबर मेंबर के रूप में 27 नवम्बर 1942 को बाबा साहेब ने प्रस्तुत किया था।  इस देश में पहली बार 8 घंटे के काम को कानूनी दर्जा मिला था।  करोड़ों श्रमिक 12-14-16  घंटे काम की मजबूरी से आजाद हुए थे।  भारत में न्यूनतम वेतन का क़ानून भी उसी दौरान उन्ही के लेबर मेंबर – श्रम मंत्री के समकक्ष पद – रहते हुए बना।  मैटरनिटी लीव, महिला कामगारों के लिए सामान वेतन, महिला और बाल श्रमिकों के संरक्षण के क़ानून तभी बने।  भूमिगत कोयला खदानों में काम करने वाले मजदूरों के क़ानून तभी बने।  आज जब इन सबको छीनने और पूरी बेशर्मी के साथ मेहनतकशों  को कारपोरेट की शार्क और व्हेल मछलियों के सामने फेंकने की साजिशें हो रही हैं ; बाबा साहेब प्रासंगिक भी हैं, आंदोलनों के हमसफ़र भी हैं।

उनके तर्कों और तथ्यों से निरुत्तर हो जाने वाले बहुत सारे विद्वान् पूछते हैं कि बाबा साहेब गवर्नर जनरल की कौंसिल में क्यों गए थे – जबकि असल सवाल यह होना कि चाहिए कि इस कौंसिल में कर क्या रहे थे। और यह अकेला उदाहरण नहीं है – यह एक विचार की निरंतरता है.  कन्टीन्यूटी है,  जो बाद में संविधान के डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स में दर्ज होती है और प्रावधान करती है कि नीतियां इस तरह की बनाई जाएँ कि आमदनी के अनुपात में एक और दस से ज्यादा का अंतर नहीं हो  – यह प्रावधान करती है कि नीतियां ऐसी बननी चाहिए जिससे दौलत का, सम्पदा का केन्द्रीकरण न हो – यह जनता के बीच विकेन्द्रीकृत हो। विडंबना यह है कि आज सत्ता में वे लोग हैं जिनके लिए कुछ घरानो की रईसी का बढ़ना ही विकास है, उनकी सेवा ही राष्ट्रवाद है; उनके लिए कारपोरेट ही माता च पिता त्वमेव है। बाबा साहेब ने जाति का क्लास ही नहीं पहचाना था – उन्होंने जाति का जेंडर भी ढूंढा था। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अपनी थीसिस में उन्होंने लिखा कि “जाति की मुख्या विशेषता जाति के अंदर ही शादी करना है।  कोई स्त्री अपनी इच्छा से शादी नहीं कर सकती।  इसके लिए प्रेम पर भी रोक लगा दी गयी।” उन्होंने बताया कि बालविवाह और सतीप्रथा की परम्पराएं और विधवा विवाह पर रोक इसी तरह के नुस्खे थे जिन पर देवी देवताओं – ग्रन्थ पुराणों के ठप्पे लगवाए गए।  स्त्री को शूद्रातिशूद्र बताने वाले मनु जैसे खलनायक लाये गए।   

जाति शोषण की दीर्घायुता के जेंडर की पहचान एक बड़ा मौलिक काम था। अपने जमाने के सारे प्रमुख और बड़े राष्ट्रीय नेताओं में – पंडित जवाहरलाल नेहरू सहित – वे अकेले थे जिन्होंने महिला मुक्ति की लड़ाई के सवाल को हमेशा प्राथमिकता में रखा – उसके लिए जूझे भी। इसके लिए नेहरू की कैबिनेट भी छोड़ी  मगर समर्पण या समझौता नहीं किया।  1951 में हिन्दू कोड बिल को संसद में रखते हुए और बाद में जबाब देते हुए बाबा साहेब के भाषण इन बेड़ियों और इन्हे धार्मिक आवरण पहनाने की साजिशों के खिलाफ आज भी प्रासंगिक है – बल्कि आज पहले की तुलना में ज्यादा प्रासंगिक हैं क्यों कि आज सारी लाज शर्म,  दिखावटी मर्यादा ताक पर रखकर चिन्मयानद, कुलदीप सेंगर, आसाराम और गुरमीत राम रहीम नए आराध्य बनाये जा रहे हैं। जाति के शोषण का झंडा स्त्री की देह में गाड़ा जा रहा है। जेएनयू की आइशे घोष ही नहीं जामिया-एएमयू और टिस्स की लडकियां भी उनकी आईटी सैल के निशाने पर हैं। पढ़ती लिखती युवा स्त्रियां उन्हें खल रही हैं – वे उन्हें दड़बे में बंद कर देना चाहते हैं। ऐसे में बाबा छोड़ी के बिना इस लड़ाई को जीतना कठिन होगा। बाबा छोड़ी ने कहा था कि हर नागरिक एक स्त्री की गोद में पलकर बड़ा होता है – नारी ही देश और उसके नागरिक बनाती है।

उनका आदर्श समाज एक ऐसा समाज था जो आजादी, बराबरी और भाईचारे पर आधारित हो।  धर्माधारित राष्ट्र की समझदारी को वे देश की एकता के लिए ही नहीं मनुष्यता के लिए भी ख़तरा मानते थे।  

विचार को व्यवहार में लाते समय प्रतीकों के चयन के मामले में भी बाबा साहेब बहुत सजग थे ।  जब उन्होंने मनुस्मृति को आग में जलाने का आव्हान किया तो महाराष्ट्र ब्राह्मण सभा के अध्यक्ष ने उन्हें चिट्ठी लिखी कि वे भी इस आयोजन में शामिल होकर दर्शक बनना चाहेंगे – मगर एक शर्त के साथ;  मनु की किताब  में आग डॉ. अम्बेडकर खुद अपने हाथ से  लगाएं , सहस्रबुद्धे से नहीं लगवाएं।  चाल स्पष्ट थी – उनकी मौजूदगी में बाबा साहेब के मनुस्मृति का दहन करने यह दलित वर्सेज ब्राह्मण हो जाता। बाबा साहेब ने साफ़ इंकार करते हुए कहा कि मनु की किताब से लड़ाई सिर्फ दलितों की नहीं है – हर समझदार और तर्कशील इंसान की है। (सहस्त्रबुद्धे बाबा साहेब के अनन्य सहयोगी थे और जन्मना ब्राह्मण थे।) यही काम उन्होंने अपने अनेक सत्याग्रहों में किया।  वे जानते थे कि जातिप्रणाली से लड़ाई एक जाति की दूसरी जाति से लड़ाई नहीं है। इसे जातियों के खांचे में रहकर नहीं लड़ा जा सकता – जैसी की कहावत है, नमक से नमक नहीं खाया जा सकता।  
हाल का समय पोंगापंथ की बहाली और अंधविश्वास की ताजपोशी का समय है।  थाली लोटा बाल्टी बजा कर कोरोना मनाये जा रहे हैं – दिया बाती करके उनकी आरती उतारी जा रही है – सेना के विमानों से फूल बरसाये जा रहे हैं ।  तर्क, बौद्दिकता पर हमले इतने लगातार है कि सिर्फ हाल के हासिल को ही नहीं छीना जा रहा – पिछली पांच हजार साल में सीखे सबक, तमीज, सलीके और शऊर को नकारा जा रहा है।  पूछताछ – जांच परख और विश्लेषण को देशद्रोह करार दिया जा रहा है।  पहले स्वतन्त्रता संग्राम 1857 के बाद के 90 साल की लड़ाई और खासकर 1919 के जलियांवाला बाग़ के नरसंहार के बाद देश भर में अंग्रेजो से लड़ाई और लड़ने वालों के बीच वैचारिक मंथन दोनों एक साथ चले थे।  मंथन तीन सवालों पर था ; एक – प्लासी की लड़ाई 1757 के बाद अंग्रेजो के गुलाम क्यों हुए? दो- आजाद कैसे होंगे? तीन -आजादी के बाद क्या करेंगे ताकि फिर से गुलाम होने की आशंका मिटे और नए भारत का निर्माण हो। भारत का संविधान  इसी मंथन से उभर कर आयादस्तावेज है जिसकी नागरिकों के कर्तव्य वाली धारा 51 (ए) (एच) कहती है कि “हर नागरिक अपने और देश के अंदर जांच परख इन्क्वायरी की क्षमता और वैज्ञानिक रुझान साईंटिफिक टेम्पर विकसित करेगा “ थाली लोटा बाल्टी नहीं बजायेगा।  

कोरोना और मूर्खता के वायरस मोरोना में कौन ज्यादा  खतरनाक है इस पर बहस जारी है। असल वायरस है कार्पोरेटी हिंदुत्व – हिंदुत्व मतलब वह जिसे सावरकर ने गढ़ा था – कॉइन किया था – और ऐसा करते में उन्हीने कहा था कि “इसका हिन्दू धर्म की परम्पराओं या मान्यताओं से कोई संबंध नहीं है। यह राज करने की एक प्रणाली है।” हिंदुत्व मतलब मनुस्मृति का म्यूटेड फिजिकल वर्शन।  इनके हिसाब से लोकतंत्र मुंडगणना है नहीं चाहिए। समता या समानता गैर भारतीय अवधारणा है, नहीं चाहिए।  संविधान पश्चिम से आया है नहीं चाहिए। चाहिए क्या? एक बंद समाज – मुट्ठी भर का राज – हिंसक और पाशविक माहौल।  उनकी निगाह में शूद्र सिर्फ जन्मना शूद्र नहीं है कर्मणा भी है।दिल्ली से महापलायन करने वाले, पैदल चलने वाले लाखों लोग मेहनतकश थी इसलिए उनकी निगाह में शूद्र ही थे – जिन्हे गरियाया जा रहा था – कोसा जा रहा था। स्त्री तो खैर उनके हिसाब से शूद्रातिशूद्र है ही।

यह हिंदुत्व फर्जी राष्ट्रवाद की खाल ओढ़कर आया है। सभ्य समाज की सारी पहचाने चींथ लेना चाहता है। असहमति, विमर्श और संवाद से उसे डर लगता है – बौद्दिकता और तर्कशीलता से उसकी रूह कांपने लगती है। अनेक विविधताओं और विसंगतियों से भरे देश में उसका राष्ट्रवाद वास्तव में मनु का नया नाम है – बाबा  साहेब कहते थे कि “हिंदुत्व  स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व के लिए ख़तरा है।” 14 अप्रैल को जब दुनिया भर में बाबा साहेब को याद किया जारहा था मोदी राज में बाबा साहेब के पौत्र दामाद प्रोफ़ेसर आनंद तेलतुम्बडे और गौतम नवलखा को जेल भेजा जा रहा।  प्रोफ़ेसर तेलतुंबड़े आंबेडकर और उनकी विचारधारा के हमारे दौर के सबसे प्रखर जानकार हैं।  मार्क्सवाद के विश्लेषणात्मक टूल्स से उन्होंने भारत के बारे में बाबा साहब के सिद्दांतों का विश्लेषण ही नहीं किया बल्कि उनकी अब तक हुयी एकांगी व्याख्याओं को सर्वांग बनाया है – उनके उस विराट स्वरुप को उजागर किया है; उन्हें दलित प्रश्न से आगे सभी समकालीन सवालों के साथ जोड़कर समझा और समझाया है। ऐसे प्रोफेसर को हिंदुत्व की ताकतें और उनके फासिस्ट बिरादर देशद्रोही करारा देकर जेलों में ठूंस रहे हैं ताकि असहमति और प्रतिरोध की हर संभावना समाप्त की  जा सके।  

सवाल यह भर नहीं है कि आज अंग्रेजों के भेदियों और बर्बरता के भेडिय़ों के हाथ में राज है – सवाल यह है और यह जरूरी सवाल है कि इनके हाथ में राज आ कैसे गया?

महान लोग केवल अपने योगदान की वजह से महान नहीं होते – वे  पूर्वानुमान की वजह से भी महान होते हैं।  भविष्य के बारे में अपने आंकलन से भी प्रासंगिक और ताजे बने रहते हैं ; बाबा साहेब ऐसे ही महान व्यक्तित्व हैं। 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में दिए अपने आख़िरी भाषण में उन्होंने साफ़ साफ़ शब्दों में तीन चेतावनियां दी थी ;एक ; उन्होंने कहा था कि; ‘’हमने राजनीतिक लोकतंत्र तो कायम कर लिया – मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक नहीं है। भारतीय सामाजिक ढाँचे में दो बातें अनुपस्थित हैं, एक स्वतन्त्रता (लिबर्टी), दूसरी भाईचारा-बहनापा (फेटर्निटी)’ उन्होंने चेताया था कि ‘यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।’’ दूसरी चेतावनी और समसामयिक लगती है। उन्होंने कहा था कि ;  “अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति – भले वह कितना ही महान क्यों न हो – के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे ‘संविधान और लोकतंत्र’ के लिए खतरनाक स्थिति है। इसे और साफ़ करते हुए वे बोले थे कि ‘’राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।’’ 1975 से 77 के बीच आतंरिक आपातकाल भुगत चुका देश पिछले छह वर्षों से जिस भक्त-काल और एकल पदपादशाही को अपनी नंगी आँखों से देख रहा है उसे इसकी और अधिक व्याख्या की जरूरत नहीं है। 

एक बड़ा अंतर यह है कि बाबा साहब जिन व्यक्तियों के बारे में सावधान कर रहे थे वे सचमुच के बड़े लोग थे; नेहरू थे, पटेल थे, राजा जी थे, गांधी कुछ ही समय पहले गए थे। ये बड़े लोग थे – इन्होने जेलें काटी थीं – इनकी एक ख़ास तरह की कंडीशनिंग हुयी थी।  इनके मुकाबले आज जिनके भक्त समूह हमलावर हुए घूम रहे है उनके साथ ऐसा कुछ भी नहीं है – लिहाजा मामला गंभीर है और इसका समाधान वही है जो बाबा साहब दे गए थे।

आखिर में एक विडम्बना और एक संभावना ;विडंबना यह है कि खुद बाबा साहब को उनके तथाकथित स्वयंभू डीलर्स ने ठीक वही बनाकर रखना चाहा  जिसके वे ताउम्र खिलाफ रहे ;  उनकी मूर्ति बनाकर पूजा शुरू कर दी, हाथ में संविधान की किताब पकड़ा दी और उनकी कालजयी रचना “जातियों का विनाश” (एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट) सहित उनके क्रांतिकारी दर्शन को गहरे में दफना दिया।  उनकी प्रतिज्ञाओं को झांझ-मंजीरों के शोर में गुम कर दिया।  इन्होने न उन्हें कभी पढ़ा न कभी जाना – ये वे ही हैं जिनकी बाबा साहब अपनी आमसभाओं में छड़ी लेकर पिटाई करते थे।  औरंगाबाद की एक सभा से उन्होंने यह किया था – उस सभा में जैसे ही उनकी कार पहुँची बहुत सारे लोग उनके पाँव  छूने आगे आये – बाबा साहब ने अपनी छड़ी से सबकी पिटाई करते हुए कहा था मुझे भक्त नहीं चाहिए मिशन के लिए समर्पित लोग चाहिए।  

संभावना वाली बात यह है कि रात कितनी भी अंधेरी हो, उसका अंत एक सुबह में होता है। यह सुबह कैसे आएगी? जाहिर है  उन दोनों सवालों से जूझकर जिन्हे 1938 के अपने पार्टी घोषणापत्र में बाबा साहेब ने सूत्रबध्द किया था और चेतावनी के रूप में 25 नवम्बर 1949 को कहा था; राजनीतिक लोकतंत्र को बचाते हुए सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को हासिल करते हुए आएगी। इसी दिशा में लड़ाई जारी है। भारतीय सामाजिक विशेषता में यह लड़ाई तभी जीती जा सकती है जब कारपोरेट और मनु के फिजिकल एडिशन हिंदुत्व दोनों से एक साथ लड़ा जाए; और ऐसी लड़ाई सही तरीके से वे ही लड़ सकते हैं जिनके एक हाथ में  बाबा साहब की 1936 में लिखी  एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट – जातियों का विनाश – और 1848 में लिखी बाबा मार्क्स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो होगी। क्या ऐसा होगा? ऐसा ही हो रहा है इन दिनों। 


बादल सरोज: 1972 से 1980 तक एसएफआई एक्टिविस्ट, पटना कांफ्रेंस में एसएफआई की केंद्रीय कार्यकारिणी में निर्वाचित। सम्प्रति संयुक्त सचिव अखिल भारतीय सभा एवं सम्पादक लोकजतन |


14 अप्रैल 2020 को प्रोग्रेसिव स्टूडेंट्स फोरम TISS में किये गए संवाद का सम्पादित रूप |


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